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यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।
अर्थ यज्ञ से बचे हुए प्रसाद (निष्काम यानि बिना किसी कामना के कर्म करके प्राप्त हुए संसाधनों को पहले दूसरों की सेवा में लगाने के पश्चात् जो बच गया वो आप ग्रहण कर रहे हैं तो वो मात्र भोजन न रहकर भगवन का प्रसाद हो जाता है ) को ग्रहण करने वाले उत्तम मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो सिर्फ अपने ही पे इन संसाधनों को खर्च करते हैं यानि अपने लिए ही पकाते हैं वे तो भोजन की जगह सिर्फ पाप ही ग्रहण कर रहे हैं व्याख्यागीता अध्याय 3 का श्लोक 13 यानि कोई भी कार्य करे उसके फल रूप में जो भी मिला,उसमें से जरूरत मंद को दान करे। फिर दान करने के बाद जो भी बचा उससे अपना जीवन व्यतीत करता है वह खाने वाला मनुष्य संत है,जो अपने लिए इच्छा नहीं करते उनको पता है सब कुछ ईश्वर का ही दिया हुआ है। ऐसे समझ कर जरूरत मंद की सेवा करता है। अगर कुछ बचता है तो उससे अपना जीवन चलाता है। वह मनुष्यों में संत है उस योगी को भगवान कृष्ण ने संत का दर्जा दिया है। ऐसे संत सब पापों से मुक्त हो जाते हैं। लेकिन जो प्रकृति के गुण से मोहित होकर अपना पेट भरने के लिए ही पकाते हैं वह पापी लोग पाप का ही भक्षण (खाना) करते हैं। सब अकेले आये हैं। अकेले जाना है। खाली हाथ आये खाली हाथ जाना है। सब यहीं से लिया यहीं बांटने में आपका क्या जाता है। अगर आप नहीं बांटोगे तो कौन-सा साथ लेकर चले जाओगे। आप नहीं बांटोगे तो भी यहीं रह जाना है। यहाँ से लेकर यहाँ देने में अपना क्या लगता है। परिवार का मोह है उस वजह से यज्ञ अर्थात दान नहीं दे पाते हो तो भी यह भी आपका अज्ञान है। क्योंकि हर बार हर जन्म में अपने बदल जाते हैं अपना इस संसार में कोई नहीं। अपना तो परम ही है उसको छोड़कर आप इस संसार में क्यों मिट्टी के खिलौने बना कर मिटा रहे हो,इसका मोह छोड़कर इसको यज्ञ करते चलो आप अपनी परम मंजिल पर अवश्य पहुंचोगे। फल से बचे हुए को खाने वाला संत सब पापों से मुक्त हो जाता है। हर रोज हर पल अपने वर्तमान को यज्ञमय बनाते चलें, यही जीवन है। यही यज्ञ है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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