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इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।।
अर्थ आसक्ति रहित कर्म यज्ञ से प्रसन्न हुए देवता तुम्हे कर्तव्यपालन हेतु आवश्यक सामग्री प्रदान करते रहेंगे और इस प्रकार प्राप्त हुई सामग्री को जो मनुष्य दूसरों की सेवा में लगाए बिना केवल स्वयं उपभोग करता है वो मनुष्य चोर ,पापी कहलाता है व्याख्यागीता अध्याय 3 का श्लोक 12 देवता शब्द को आप अच्छे से समझ लें,इस शब्द से बड़ी भ्रांति हुई हैं, देवता शब्द का अर्थ है.... इस संसार में तीन प्रकार के लोग हैं पुण्य कर्म करने वाले श्रेष्ठ पुरुष, और दूसरे साधारण मनुष्य ना पाप करने वाले और ना पुण्य कर्म करने वाले और तीसरे हैं पाप कर्म करने वाले, हत्याएं करने वाले, इन तीनों में जो बीच का है साधारण मनुष्य, वह जब मरता है तब तत्काल अगला गर्भ उपलब्ध हो जाता है,उसे प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती, लेकिन जो श्रेष्ठ आत्मा है या बुरी आत्मा है उनको तत्काल गर्भ नहीं मिलता,उनको प्रतीक्षा करनी पड़ती है। इन में जो श्रेष्ठ आत्मा होती है वह देवता होती है,जो बुरी आत्मा होती है वह प्रेत आत्मा होती है,जब तक अच्छी व बुरी आत्मा को आगे गर्भ नहीं मिलता तब तक वह देवता व प्रेत बने रहते हैं। बुरा कर्म करने वाला होता है उन व्यक्तियों को प्रेत आत्माओं के द्वारा बुरे कर्म करने में सहारा मिलता है, जो अच्छे लोग हैं उनको देव आत्माओं का सहारा मिलता है। कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन को कि तू शुभ कर्म करता है तो उनेक देवताओं का सहारा तुझे मिलता है। जब भी आप अच्छे कर्म करते हो तो आप अकेले नहीं होते तब भी अनेक आत्माएं जो अच्छा करना चाहती है वह तत्काल आपके आस-पास इकट्ठी और सक्रिय हो जाती है। तत्काल आपको उनकी शक्तियां मिलनी शुरू हो जाती है। कृष्ण के कहने का भाव है अर्जुन से कि अगर तू अपने कर्ता को भूलकर परमात्मा के दिए कर्म को करता है तो देवताओं का तुझे साथ है,तुझे उनका सहयोग है, तू अपना कर्तव्य निभा रहा है और देवता अपना कर्तव्य निभा रहे हैं,ऐसे देवता व प्रजा एक दूजे को उन्नत करके परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं। इस श्लोक में कृष्ण कहते हैं बिना मांगे ही देवता खुश होकर कर्तव्य पालन की आवश्यक सामग्री देते रहेंगे। इस बात को समझें कि दिव्य शक्तियां बिना मांगे सब दे जाती हैं लेकिन मनुष्य को अपने पर भरोसा जरूरत से ज्यादा होता है तब आपको लगता है कि मैं सब कुछ पा लूंगा। इस कारण आपके कर्म यज्ञरूपी नहीं हो पाते या आप मांगते हैं कि मिल जाए,तब इच्छाओं से दूषित हो जाता है और दिव्य शक्तियों से आपका संबंध टूट जाता है। कृष्ण और गहरी बात कहते हैं कि यज्ञरूपी कर्म से जो मिले उसे बांट दो,उसमें दूसरों को साझेदार बना लो। क्यों ?क्यों बांट दें, इसमें प्रकृति का एक नियम काम करता है जो भी हम देते हैं लोगों को,वही हमारे पास बढ़कर आता है। जैसे आप आनन्द बांटते हो तो आपके जीवन में आनन्द बढ़ता है,अगर आप दुःख बांटते हो तब आपका दुःख लेता नहीं कोई,लेकिन आपके जीवन में दुःख और ज्यादा बढ़ जाता है। जिस कलर की गेंद आप दीवार की तरफ फेंकते हो वही गेंद दीवार के टकराकर वापिस आपकी तरफ आती है,अगर हरे कलर की गेंद फेंकी तो वापिस हरे कलर की ही गेंद आएगी,अगर लाल कलर की गेंद फेंकी तो लाल कलर की गेंद तुम्हारे हाथ में आएगी। कृष्ण कहते हैं जब यज्ञरूपी कर्म से दिव्य शक्तियां वह देने लग जाए,जिसकी प्राणों में सदा से प्यास रही, लेकिन कभी मिली नहीं और अब बिना मांगे मिल गई तो कंजूस मत हो जाना उसे अपने पास रोक मत लेना,उसे बांट देना, क्योंकि जितना तुम बांटोगे उतना ही वह बढ़ता चला जाता है। घर की एक खिड़की खुली हो तो भीतर हवा नहीं आएगी,दूसरी खिड़‌की खोलोगे तो भीतर वाली बाहर जाएगी,फिर बाहर से भीतर और हवा आती रहेगी। अपने पास है उसे पहले बांट दें,फिर कुछ बचे तो उसका खुद उपभोग करें। जैसे घर में मेहमान आते हैं तो पहले मेहमान को खिलाते हैं फिर बचता है तो खुद खाते हैं,ऐसे ही पहले बांट दें, फिर बचे तो खुद उपभोग करें। ना बांटने वाला तो सारी उम्र चीजों को संभालने में ही मर जाएगा,जिसको देने की आदत नहीं वह खुद भी वंचित रह जाता है,वह पाप को संभाले हुए मर जाता है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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