सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।
अर्थ प्रजापति ब्रह्मा ने सृष्टि की प्रारम्भ में कर्त्तव्य कर्मों के नियमों के साथ प्रजा को सृजित किया और मुख्यतः मनुष्यों को कहा कि वे इस कर्त्तव्य के माध्यम से सभी की समृद्धि करें। यह कर्त्तव्य कर्मरूप यज्ञ उन्हें कर्त्तव्य पालन की आवश्यक सामग्री प्रदान करेगा। उन्हें इस कर्त्तव्य कर्म के माध्यम से देवताओं को उन्नत करना चाहिए, और देवता प्रसन्नता के फलसवरूप अपने कर्तव्य कर्म के पालन में मनुष्यों को समृद्ध करें । इस प्रकार, एक दूसरे की समृद्धि करते हुए, सभी परम सुख को प्राप्त करेंगे व्याख्यागीता अध्याय 3 का श्लोक 10-11
प्रजापति ने जब सृष्टि को रचा उस समय प्रजा से कहा,तुम सब प्रजा एक दूसरे के काम आओ, सबको बराबर लेकर चलो, सबकी वृद्धि करो। मानव के लिए भी कर्म करो और प्रकृति में जितने भी जीव हैं पशु,पक्षी उनकी भी सेवा करो और प्रकृति की सेवा करो,जैसे पेड़ लगाना, हवन करना,वातावरण को शुद्ध रखना आदि। परमात्मा ने सब प्रजा को एक दूसरे की वृद्धि करने के लिए कहा जब तुम सब प्रजा एक दूसरे के लिए यह कर्मों का यज्ञ करोगे (अपने से दूसरे को देना यज्ञ होता है) तो यह कर्मरूपी यज्ञ तुम लोगों को सामग्री (अनाज,भोजन) प्रदान करने वाला होगा।
इसके द्वारा (सामग्री द्वारा) तुम लोग देवताओं को उन्नत करो अर्थात जब कर्मरूपी यज्ञ सामग्री प्रदान करे तब आप उस सामग्री से देवताओं की पूजा करो,हवन करो ऐसे तुम जब देवताओं को उन्नत करोगे। अपने पास है उसको यज्ञ करके,तब देवता तुम लोगों को उन्नत करेंगे। ऐसे देवता व प्रजा एक दूजे को उन्नत करके परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे।