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ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन द्य।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ।।

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ।।
अर्थ अर्जुन बोले : हे जनार्दन, यदि आप बुद्धि को कर्म से उत्कृष्ट मानते हैं, तो फिर आप मुझसे इस भयंकर युद्ध को लड़ने को क्यों कहते हैं? मेरी बुद्धि आपके अस्पष्ट संदेश से उलझ गई और मोहित सी हो रही है। कृपया मुझे स्पष्ट रूप से वो मार्ग बताएं कि जिसे अपना कर मैं मोक्ष को प्राप्त कर सकूँ व्याख्यागीता अध्याय 3 के श्लोक 1-2 हे जनार्दन: अगर आप कर्म से बुद्धि को श्रेष्ठ मानते हो तो फिर हे केशव! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हो। सामने युद्ध का विस्तार दिखाई पड़ रहा है और युद्ध में सामने कुरूवंशी ही युद्ध करने आए हैं। अर्जुन मोह में अपनों के मरने के भाव से भयभीत हो गया है। वह मोह है, अज्ञान है, लेकिन वह स्वीकार करने को राजी नहीं कि मैं मोह, भय के कारण वापिस हटना चाहता हूँ अर्जुन कह रहा है यदि ज्ञान बिना कर्म के मिलता है तो आप मुझे कर्म करने में धक्का क्यों दे रहे हो, श्री कृष्ण ने पिछले अध्याय में पहले अर्जुन को सांख्य योग के बारे में ज्ञान दिया कि आत्मा कभी नहीं मरती। शरीर जन्मते मरते हैं। परम सर्वत्र दिशाओं में व्याप्त है। फिर अर्जुन को भगवान कर्म योग के बारे में बताते हैं कि तू अपने स्वधर्म के हिसाब से युद्ध कर क्योंकि क्षत्रिय का धर्म होता है, युद्ध करने से प्रजा व अपने राज्य की रक्षा करना। फिर योग में (समसाधना में ) अपने स्वभाव से कर्म करता हुआ मुक्ति को प्राप्त होगा। इन दोनों बातों में अर्जुन कंफ्यूज हो गया है कि अगर सम स्थिर हो जाऊं फिर भी मुक्ति मिल जायेगी तो आप मुझको भयंकर युद्ध में क्यों धकेल रहे हो। अर्जुन का जोर कर्म से भागने में है, ज्ञान पाने में नहीं, ज्ञान में कोई प्रश्न नहीं होता। ज्ञान प्रश्न शून्य है, ज्ञान एक भाव है ईश्वर के साथ एकाग्र होने का, ज्ञान में प्रश्न नहीं होते वह शून्य है, वह भाव भीतर से फूटते हैं ज्ञानी अंतर्मुखी होता है। अर्जुन बहिर्मुखी है। इसलिए सांख्य की बात उसकी समझ में पड़नी असंभव है। अगर अंतर्मुखी आदमी क्षत्रिय के घर में पैदा हो जाए तो भी क्षत्रिय नहीं रह सकता। अर्जुन व्यक्ति तो क्षत्रिय है, सवाल पंडितों जैसे कर रहा है।
 
मनुष्य के मन में  एक कमजोरी होती है कि वह प्रश्न करके उत्तर के रूप में भी वक्ता से अपनी बात का ही समर्थन चाहता है। सांख्य की बात श्री कृष्ण ने पूरी निश्चय से कही कि यही है मार्ग कल्याण तक पहुंचाने का, लेकिन अर्जुन इस श्लोक में फिर कहता है कि निश्चय से कहिए, इसका अर्थ यह हुआ कि कृष्ण ने कितने ही निश्चय से अध्याय दो में साख्य की बात की लेकिन अर्जुन के स्वभाव से उसका कोई तालमेल नहीं हो पाया, कोई बात निश्चित नहीं हो सकती जब तक मन उलझा हुआ है।
अर्जुन अपने मन में चल रहे भावों को रोक नहीं पा रहा है। इसलिए कह रहा है कि मेरा विषयों से भागता हुआ मन ठहर जाये, ऐसी कोई निश्चय बात कहे जिससे मैं कल्याण (मोक्ष) को प्राप्त हो जाऊं। मनुष्य का मन भी अर्जुन का प्रतीक है, यह हमेशा डोलता रहता है, अर्जुन की तरह। ज्ञान डोलने में नहीं स्थिर हो जाने में है, जो शांत स्थिर हो गया वह जीते जी निर्वाण को प्राप्त हो गया, जो डोल गया वह लाखों जन्मों के लिए भवसागर में डूब गया। आगे भगवान दोनों श्लोकों के उत्तर देते हैं ज्ञान व कर्म -
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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