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एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ।।
अर्थ हे पृथानंदन! यह ब्रह्म स्थिति है। इसको प्राप्त हो कर कभी कोई मोहित नहीं होता। इस स्थिति में यदि अंत काल में भी स्थित हो जाये तो निर्वाण मोक्ष ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है। व्याख्यायह उस ब्रह्म को प्राप्त हुए मनुष्य की स्थिति है जिस सत चित्त आनंद प्रभु के प्राप्त करने के बाद योगी संसार की किसी माया से भी मोहित नहीं होता और जब अंत समय में देह का त्याग होता है, उस वक्त भी सम होकर संसार के वैराग्य के साथ देह त्याग करता है। देह त्याग के बाद आत्मा परम आत्मा में विलीन हो जाती है उसी को संतो ने मोक्ष कहा था। परम रहस्य:- समबुद्धि का अर्थ है, संतुलन, मन के भीतर चल रहे द्वंद्व के बीच सम हो जाना जैसे दुकानदार का तराजू होता है उसका पलड़ा कभी इधर कभी उधर डोलता रहता है, ऐसे ही मन तराजू के पलड़े की तरह डोलता रहता है। मनुष्य के मन का आधा हिस्सा क्रोध करता है और आधा हिस्सा पश्चाताप, जैसे ही आपने क्रोध किया वैसे ही आपके मन में पश्चाताप हुआ, पश्चाताप दोबारा क्रोध करने की तैयारी होता है। अगर क्रोध करके कोई पश्चाताप ना करें, तो वह दोबारा क्रोध भी नहीं कर सकता। जब तक मन है भीतर तब तक द्वंद्व रहेगा। जैसे ही तराजू के पलड़े सम होते हैं वैसे ही तराजू का कांटा संतुलन हो जाता है, एकदम मध्यम में। मन या तो अतीत की याद में उलझा रहता है या फिर भविष्य की तैयारी में, मन वर्तमान पल में ठहरता ही नहीं, वर्तमान पल अतीत-भविष्य की परत से ढका रहता है, जब तक मन है, द्वंद्व रहेगा, सम होना मन से बाहर होना है। सम होने के कुछ अभ्यास आप करते रहें जैसे आप खड़े रहते हैं तब आपका वजन या तो दाएं पैर पर होता है या बाएं पैर पर, अब के बाद आप जब खड़े रहें तब आपका वजन दोनों पैरों पर बराबर रखें। कुछ ही दिनों में आप पाओगे शरीर में वजन है ही नहीं। ऐसे अभ्यास आपको समबुद्धि योग में प्रवेश कराते हैं। जब आप खाना खा रहे हो तब पूरे होश में खाना खाएं, खाने को खाते वक्त खाने को महसूस करें। जब पानी पीते हो तब पानी की मिठास को महसूस करें, जब चलते हो तो चलने में ध्यान दें कि अब दांया पैर आगे गया, अब बांया पैर आगे गया। ऐसे छोटे-छोटे अभ्यास आपको आत्मबोध तक लेकर जाते हैं। क्रोध भी मन है, क्षमा भी मन है, दोनों से बाहर होना आत्मा में प्रवेश करना है, आत्मा में प्रवेश करने का मार्ग समयोग है। ‘‘ जय श्री कृष्णा ’’
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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