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आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ।।
अर्थ जैसे सम्पूर्ण नदियों का जल चारों और से जलद्वारा परिपूर्ण समुन्द्र में आ कर मिलता है, पर समुन्द्र अपनी मर्यादा में अचल स्थिर रहता है, ऐसे ही सम्पूर्ण भोग-पदार्थ जिस संयमी मनुष्य को विकार उत्पन्न किये बिना ही प्राप्त होते हैं, वही मनुष्य परम शांति को प्राप्त होता है, भोगों की कामना वाला नहीं। व्याख्याजैसे सागर (समुन्द्र) के चारों तरफ से छोटी-छोटी नदियां आकर समा जाती हैं, उन नाना प्रकार की नदियों के पानी से सागर विचलित नहीं होता, वह अचल रहता है, वैसे ही समयोगी संसार के भोगों से विचलित नहीं होते, वह भोगे या ना भोगे उससे साधक के मन में  इच्छाएं पैदा नहीं होती। सारी नदियां सागर में समा जाती हैं। ऐसे ही समयोगी भोग भोगने पर भी विचलित नहीं रहता, स्थिर रहता है। प्रभु की याद में वही मनुष्य परम शांति यानि मोक्ष को प्राप्त होते हैं, भोगों को चाहने वाला नहीं।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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