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कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धम् राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्।।

सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।
अर्थ "कायरता रूप दोष से तिरस्कृत वाला और धर्म के विषय में मोहित मन वाला मैं आपसे पूछता हूँ कि जो निश्चित मोक्ष करने वाली हो, वह बात मेरे लिए कहिए। मैं आपका शिष्य हूँ। आपकी शरण में मुझे शिक्षा दीजिए। कारण कि पृथ्वी पर धन, धान्य और शत्रुरहित राज्य तथा स्वर्ग में देवताओं का अधिपत्य मिल जाए तो भी इन्द्रियों को सुखाने वाला मेरा जो शोक है, वह दूर हो जाए ऐसा मैं नहीं देखता हूँ। संजय बोले - हे धृतराष्ट्र! ऐसा कहकर निंद्रा को जीतने वाले अर्जुन अंतर्यामी भगवान गोविन्द से मैं युद्ध नहीं करूंगा। ऐसा साफ-साफ कहकर चुप हो गए।" व्याख्याभगवान ने दूसरे श्लोक में कहा है कि यह मोह, कायरता, श्रेष्ठ पुरूष का आचरण नहीं है। अब अर्जुन के मन में यह भी आ रहा है कि श्रेष्ठ पुरूषों का आचरण क्या होता है फिर वह तो गुरू ही बता सकता है। अर्जुन के भाव बदलते हैं और वह कृष्ण को पूछते हैं वह ज्ञान बताओ जिससे कल्याण (मुक्ति) को प्राप्त होऊं। अर्जुन कह रहे हैं मैं आपका शिष्य हूँ और आपकी शरण में हूँ अर्जुन के जैसे शब्द हैं वैसे भाव नहीं है अगर उनमें गुरू वाले भाव होते तो भगवान ने तो कहा था हृदय की तुच्छ सी दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिये खड़ा हो जा अर्जुन फिर भी बोले जा रहे हैं। गुरू तो उपदेश दे देंगे, जिस मार्ग का ज्ञान नहीं, उसका ज्ञान करा देंगे, पूरी बात बता देंगे, पर मार्ग पर तो खुद शिष्य को ही चलना पड़ता है।   अर्जुन, कृष्ण के शरणागत तो हो जाते हैं पर मन से समर्पित नहीं हुए हैं। इसलिए तो कह रहे हैं कि पृथ्वी का धन व स्वर्ग में देवताओं के भोगों के मिलने पर भी मुझको मेरे दुख, जलन, चिन्ता तो दूर नहीं होंगे। अर्जुन को युद्ध न करना ही ठीक लग रहा है और कुछ कहने को बाकी बचा नहीं। इसलिए वह चुप हो जाते हैं।   ‘‘अर्जुन ने साफ मना कर दिया युद्ध नहीं करूंगा ’’ · परम रहस्य:- अब तक अर्जुन ने खुद को धर्मात्मा मानकर, युद्ध से निवृत होने की जितनी दलीलें दी, संसार के अज्ञानी लोग अर्जुन की उन दलीलों को ही ठीक समझते हैं और आगे भगवान श्री कृष्ण अर्जुन जो बात समझाएंगे उनको ठीक नहीं समझते, इसका कारण यह है जो मनुष्य जिस स्थिति में है, उसको ही ठीक समझते हैं। उससे ऊँची श्रेणी का ज्ञान वह समझ ही नहीं सकते।  अर्जुन के मन में मोह है और उस मोह को धर्म है और उस मोह को धर्म, पाप मानकर साधुता की बड़ी-बड़ी बात बोल रहा है। जिन लोगों के भीतर संसार का, कुटुम्ब का,धन का,मोह है उन लोगों को तो अर्जुन की बातें अच्छी लगेगी। भगवान की दृष्टि जीव के कल्याण की तरफ है,उसका कल्याण कैसे हो भगवान की ऊँची श्रेणी का ज्ञान उन अज्ञानी व्यक्तियों को समझ ही नहीं आता। वास्तव में कृष्ण ने युद्ध नहीं करवाया परन्तु अर्जुन को ज्ञान करवाया था कि आपका कर्म क्या है व मुक्ति कैसे मिलेगी, युद्ध करना तो अर्जुन का खुद का फैसला था। श्री कृष्ण तो युद्ध रूकवाने के लिए शांति दूत बनकर बहुत बार धृतराष्ट्र के दरबार में गये थे। आखिर तक प्रयास करने के बाद भी युद्ध नहीं टला तो उन्होंने सम्पूर्ण मानव जाति के ज्ञान के लिए गीता का परम रहस्य कुरूक्षेत्र की भूमि पर अर्जुन को दिया। फिर भगवान के मुख से निकले शब्दों को वेद व्यास जी ने गीता के गीत अर्थात् भगवद् गीता के श्लोको को लिख कर आप तक पहुंचाने का कार्य पूर्ण किया।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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