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इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ।।
अर्थ कारण कि अपने अपने विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से एक ही इन्द्रिय जिस मन को अपना अनुगामी बना लेती है, वह अकेला मन जल में नाव को वायु की तरह इसकी बुद्धि को हर लेता है। व्याख्यापांचों इन्द्रियां अपने-अपने विषयों का लालच करती हैं जैसे जिव्हा खाने का, नाक सुगंध का, कान शब्दों का, आँख रूप देखने का व त्वचा स्पर्श करने का। सब इन्द्रियां अपने अपने लालच में बरत रही हैं और इनमें से एक ही इन्द्रिय मन को बहला लेती है जैसे पानी में चलने वाली नाव को एक वायु हर लेती है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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