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रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ।।

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ।।
अर्थ "परंतु वशीभूत अन्तःकरण वाला कर्मयोगी साधक राग-द्वेष से रहित अपने वश में की हुई इन्द्रियों के द्वारा विषयों का सेवन करता हुआ अन्तःकरण की निर्मलता को प्राप्त हो जाता है। अन्तःकरण की निर्मलता प्राप्त होने पर साधक के सम्पूर्ण दुःखों का नाश हो जाता है और ऐसे शुद्ध चित वाले साधक की बुद्धि निःसंदेह बहुत जल्दी परमात्मा में स्थिर हो जाती है। " व्याख्याजिसका मन अपने वश में है, जिसकी इन्द्रियां अपने वश में है, वह साधक स्थिर कहा जाता है और समयोगी इन्द्रियों द्वारा विषयों का भोग भी करता है। उन भोगों को करने से साधक उसमें लिप्त नहीं होता ना उन भोगों में राग रखता है और ना उनके छूटने से दुःख मानता। ऐसे शुद्ध चित्त वाले साधक की बुद्धि निसंदेह बहुत जल्दी सत चित्त आनंद प्रभु में स्थिर हो जाती है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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