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तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।
अर्थ कर्मयोगी साधक उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके मेरे परायण होकर बैठे, क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ वश में हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है। व्याख्याएक होता है कर्म जो अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए होता है। यह कर्म जन्म मरण गति में डालने वाला होता है, दूसरा होता है कर्मयोगी, यह साधक संसार में कर्म व उसके फल को प्रभु के चरणों में अर्पित करते हैं। इसलिए प्रभु कह रहे हैं कर्मयोगी साधक उन सम्पूर्ण इन्द्रियों व मन को वश में करके, मेरे परायण होकर अर्थात मेरे आश्रित होकर ध्यान में बैठें क्योंकि जिसकी इन्द्रियां वश में है, वह समसाधक है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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