यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ।।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ।।
अर्थ हे कुंती नंदन ! रस बुद्धि रहने से यत्न करते हुए विद्वान मनुष्य की भी प्रयत्नशील इन्द्रियां उसके मन को बलपूर्वक हर लेती हैं। व्याख्याआसक्तियाँ मन से छूटती हैं इन्द्रियों से नहीं, इन्द्रियों को हठपूर्वक रोक देने से, मन की एक भी इच्छा बुद्धिमान पुरुष का विवेक हर लेती है, आपकी दबी हुई एक इच्छा पता नहीं कब उठकर विचारों के रूप में चलने लग जाए और कब वह इच्छा दोबारा नाशवान संसार में मोह करा दे, इसलिए मन में दबी हुई इच्छा को आत्मज्ञान से विलीन करें।