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विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते ।।
अर्थ इन्द्रियों को विषयों से हटाने वाले मनुष्य के भी विषय तो निवृत हो जाते हैं, पर रस निवृत नहीं होता। परन्तु परम् का अनुभव होने से इस स्थित प्रज्ञ मनुष्य का रस भी निवृत हो जाता है अर्थात् उसकी संसार में रसबुद्धि नहीं रहती। व्याख्याजो मनुष्य शरीर से लोगों को दिखाने के लिए, मान बढ़ाई के लिए या किसी धर्म में बिना सोचे-समझे विषय को ऊपर से हठपूर्वक रोक देता है लेकिन उन विषयों में रहने वाली इच्छा मन में रहती है। बिना ज्ञान के ऊपर से इन्द्रियों को रोक कर मन से मनन करने वाले लोगों का वह त्याग नहीं माना जाता ना ही वह आसक्ति छूटी हुई मानी जाती है। लेकिन जो समसाधक है, वह प्रभु का दर्शन करके ज्ञान से मन की इच्छाओं को विलीन कर देते हैं, योगी की संसार में रसबुद्धि नहीं रहती।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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