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यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।
अर्थ जिस प्रकार कछुआ अपने अंगो को सब ओर से समेट लेता है, ऐसे ही जिस काल में यह कर्म योगी इन्द्रियों के विषय से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है। व्याख्याजैसे कछुआ चलता है तो उसके छह अंग दिखते हैं चार पैर, एक पूंछ, एक मस्तक। परन्तु जब वह अपने अंगों को छुपा लेता है तब केवल उसकी पीठ ही दिखाई देती है। ऐसे ही समसाधक पांच इन्द्रियाँ व एक मन इन छह को अपने विषय से हटा लेता है। अगर साधक इन्द्रियों के साथ चिह्न मात्र भी मन का संबंध रखता है तो वह समसाधक योगी नहीं है। योगी को विषयों का मन से मनन नहीं करना चाहिए। अपने स्वरूप आत्मा का तब तक अनुभव नहीं होता जब तक मन पर भोगों के संबंध का परदा पड़ा रहता है, जैसे ही साधक का परदा उठता है, वैसे ही सतचित्त आनंद ईश्वर का साक्षात्कार हो जाता है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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