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यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।
अर्थ सब जगह आसक्ति रहित हुआ जो मनुष्य उस शुभ-अशुभ को प्राप्त करके न तो प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है। व्याख्यासब जगह आसक्ति रहित यानि लोगों को रहने के स्थान से भी मोह हो जाता है। मेरा घर, मेरा परिवार, मेरा शरीर, मन, बुद्धि, धन यह मेरा व मेरेपन का भाव ही बंधन है।घर कभी आपसे आसक्त नहीं होता आप ही घर से आसक्ति रखते हो।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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