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श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ।।
अर्थ श्री भगवान बोलेे - हे पार्थ ! जिस काल में साधक मन में आयी सम्पूर्ण कामनाओं का भली भांति त्याग कर देता है और अपने आप से अपने आप में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थिर बुद्धि कहा जाता है। व्याख्याजिस समय से साधक के मन में जितनी भी इच्छाएं हैं उनका विवेकपूर्ण त्याग कर देता है अर्थात संसार के जितने भी भोग हैं, वह अंत में नाशवान ही हैं, एक सत्तचित आनंद प्रभु ही अविनाशी है। स्थिर होकर जब ज्ञानी देखता है तब वह अपनी आत्मा में ही संतुष्ट रहता है। उसको पता चल जाता है समसाधना से कि मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ, शरीर तो संसार भोगों के लिए है और संसार एक स्वप्न है तो भोग किसका करें इसलिए ज्ञानी अपनी आत्म रूप में ही स्थिर रहते हैं, वही समयोग है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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