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बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥
अर्थ बुद्धि समता से युक्त मनुष्य यहां जीवित अवस्था में ही पुण्य और पाप दोनों का त्याग कर देता है। अतः तू योग समता में लग जा क्योंकि कर्मों में योग ही कुशलता है। व्याख्यासमबुद्धि युक्त पुरुष पाप व पुण्य को इसी जीवन में त्याग देता है। जिसकी बुद्धि में विचार मन के साथ चलते हैं, वह मन की इच्छाओं से मानव पाप व पुण्य से बंध जाता है और जब तक पाप व पुण्य आसक्तियाँ आपके भीतर रहती हैं तब तक आगे से आगे जीव जन्म लेता रहता है और जो मानव बुद्धि को समयोग के साथ युक्त कर लेता है वह व्यक्ति कोई भी मन में विचार आए, उसको स्थिर होकर अपनी बुद्धि से विचारता है। वह मानव पाप और पुण्य से नहीं बंधता। स्थिर बुद्धि वाले व्यक्ति को पता होता है कि मैं ना शरीर हूँ और ना मन हूँ, मैं तो आत्मा हूँ और आत्मा को कोई गुण लिप्त नहीं कर सकता। सम होकर कर्म करने वाला व्यक्ति प्रभु का ही रूप होता है, समसाधक पुरुष कोई भी कार्य को करने से पहले दृष्टा बन कर एक्शन के रिएक्शन को देख लेता है। स्थिर रहने वाले योगी की विवेकशीलता वैज्ञानिक से भी ज्यादा होती है। साधक संसार में कर्म करते हुए भी उन कर्मों के फल से नहीं बंधते, साधक सम होकर संसार की पाप पुण्य को यहीं त्याग देते हैं यानि विलीन कर देते हैं और उन सबके कर्मों के फल से मुक्त हो जाते हैं। अर्जुन को कह रहे हैं भगवान श्री कृष्ण इसलिए तू समत्व रूप योग में लग जा, यह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात कर्मों में योग ही कुशलता है। कारण जिसके अंतः करण (मन) में समता रहती है वह कर्म व उसके फल से बंधेगा नहीं, इसलिए सम होकर कर्म करना ही योग है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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