दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥
अर्थ इस समत्व रूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यंत ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनंजय ! तू बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर, क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यंत दीन हैं। व्याख्यासम्पूर्ण कर्मों में समता ही श्रेष्ठ है, समता के बिना कर्म करना कर्मयोग नहीं है, सिर्फ कर्म है तथा उन कर्मों के परिणाम में जन्मते मरते रहते हैं, समसाधना के बिना कर्म करने से मुक्ति नहीं मिलती, कर्मों में समता ही कुशलता है।
अगर कर्मों में समता नहीं होगी तो कर्म करने से अहंकार हो जाएगी, अहंकार में होना ही पशुबुद्धि है। भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि तू समता की शरण ले।
समता में निरंतर स्थिर रहना ही उसकी शरण लेना है, समता में स्थिर रहने से ही तुझे स्वरूप में अपनी स्थिति का ज्ञान होगा ।
समता तो प्रभु की प्राप्ति करने वाला योग है। बिना समता के कर्म करना जन्म मरण देने वाला है इसलिए साधक को समता का ही आश्रय लेना चाहिए।