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योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥
अर्थ हे धनंजय ! योग में स्थित होकर तू कर्म कर। आसक्ति का त्याग ही योग है। कर्मों के सिद्धि होने में अथवा असिद्धि होने में सम रहना ही योग कहलाता है। व्याख्याभगवान श्री कृष्ण अर्जुन को समसाधना में स्थिर बुद्धि करने के लिए कह रहे हैं। हे धंनजय! तू आसक्ति को त्याग कर के यानि मानव की जितनी भी आसक्तियाँ उनका अगर त्याग कर दे तो उसके परिणाम में मानव को सिद्धि और असिद्धि में समता आ जाती है। कर्मों का पूरा होना न होना कर्म करने पर फल मिलना न मिलना, कर्मों को करने से आदर-निरादर, प्रशंसा-निंदा में समता ही योग है। हरदम सम (स्थिर) रहते हुए ही कर्तव्य कर्म को करना चाहिए। समता मानव की बुद्धि में निरंतर बनी रहनी चाहिए। जिसका मन समता में स्थिर हो गया है, उन लोगों ने जीवित अवस्था में ही संसार की माया को जीत लिया है। सम योग में स्थिर होकर केवल ईश्वर के लिए कर्म करो, कर्म करते हुए यह भी इच्छा न रखो कि ईश्वर मेरे पर प्रसन्न हो जाए, सम होकर सिद्धि असिद्धि यानि सुख और दुःख में समता ही योग है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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