कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥
अर्थ तुम्हारा अधिकार कर्म करने में है, फलों के प्राप्ति में कभी नहीं।
कर्मफल के कारण मत बनो, और कर्म न करने में भी आसक्ति मत लगाओ व्याख्यामनुष्य कर्म ही कर सकता है। व्यक्ति को कर्म करने का अधिकार है।
कर्मों के फल में तेरा अधिकार नहीं इससे भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि मनुष्य को कर्मों का फल प्राप्त करने में कभी किसी प्रकार का अधिकार नहीं। उसके कौन से कर्म का क्या फल होगा और वह फल उसको कौन से जन्म में व किस प्रकार प्राप्त होगा। उसका न तो उसको पता है और न वह समय पर उसको इच्छा अनुसार प्राप्त कर सकता है।
मनुष्य चाहता कुछ और है होता कुछ और है। कर्मों के फल का विधान करना विधाता के अधीन है। मनुष्य का उसमें कोई जोर नहीं चलता। भगवान श्री कृष्ण कहते हैं इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो। अगला जन्म तभी है आपका अगर आप इस जन्म में कर्म करके फल पाने की इच्छा करोगे।
आपने फल की इच्छा तो कर ली उस फल की इच्छा को परम प्रभु क्या पता कौन से जन्म में पूरा करें। इच्छा है तो पक्का अगला जन्म होगा अब जैसी इच्छा होगी गर्भ भी उसी अनुसार मिलेगा।
इन फल की इच्छा के कारण पता नहीं कितने जन्म लेने पड़ते हैं और इन जन्मों में पाओगे के नहीं, कारण पता नहीं कितनी बार अधोगति में पड़ना पड़ता है।
अर्थात पापों की सजा के लिए कितनी बार कुत्ता, गधा, सूअर, जहरीले जीव जन्तु बनना पड़ता है। इसलिए ही तो भगवान कह रहे हैं कर्म के फल का हेतु मत हो अगर फल की इच्छा कि तो हेतु (कारण) अगला जन्म तैयार हो जायेगा। जब आपको कोई किसी प्रकार की इच्छा ही नहीं होगी तो आप पाप भी क्यों करोगे।
अगर संसार से आसक्तियां ही नहीं तो फिर आप पाप भी नहीं करोगे। अगर संसार से आसक्तियां ही नहीं तो फिर आप मोक्ष (कल्याण) को प्राप्त हो जाओगे।
अब इस बात को अच्छे से समझे की कर्म किए बगैर ही कोई व्यक्ति सोचे कि फल की इच्छा ही नहीं करनी तो कर्म करने का क्या फायदा, ऐसा ना हो कृष्ण बोले कि तेरी कर्म करने से भी आसक्ति चली जाए।
इस ब्रह्म की हर चीज चलायमान है जैसे हवा, पानी, काल, मौसम सांसे आदि हर चीज में गति है। तो मनुष्य को भी जीवन में गतिशील रहना चाहिए। बिना इच्छा किए प्रभु का कर्म समझ कर भगवत मार्ग पर चलना चाहिए।
यह बात कही गई है कि ना तो कर्मों के फल का हेतु बनना चाहिए और न कर्म न करने में ही आसक्त होना चाहिए। यानि कर्मों का त्याग भी नहीं करना चाहिए। इस पर यह जिज्ञासा होती है कि, तो फिर किस प्रकार कर्म करना चाहिए।
इसलिए भगवान कहते हैं आगे 48 से 72 तक के 24 श्लोक स्थिरता यानि समता के ऊपर ज्ञान दिया गया है।
यही वह योग है जो कर्म करते हुए भी संसार के बंधन से नहीं बंधता। इस सम साधना योग से ईश्वर का साक्षात्कार हो जाता है, साधक देह त्याग के बाद परम को प्राप्त होता है।