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यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।
अर्थ सब तरफ से परिपूर्ण महान जलाशय के प्राप्त होने पर छोटे गड्ढों में भरे जल में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, वेदों को तत्व से जानने वाले ब्रह्मज्ञानी का सम्पूर्ण वेदों में उतना ही प्रयोजन रहता है। व्याख्यासब और से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त होने का अर्थ है जब आपको सागर प्राप्त हो जाता है उसके सब और जिधर नजर जाये जल ही जल होता है। उसको प्राप्त होने के बाद जैसे छोटा से तालाब (जोहड़) में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है यानि सागर मिलने के बाद तालाब का उतना ही मतलब रहता है कारण कि छोटे जलाशय में हाथ पैर धोये जाए तो उसमें मिट्टी घुल जाने से स्नान के लायक नहीं रहता स्नान करे तो कपड़े धाने लायक नहीं रहता। परन्तु महान सरोवर मिलने पर कुछ भी करो कोई फर्क नहीं पड़ता अर्थात उसमें स्वच्छता, पवित्रता वैसी की वैसी बनी रहती है। ऐसे ही जो साधक योगी परम को प्राप्त हो गये, उनके लिए वेदों में कहे हुए तीर्थ, व्रत, स्वर्ग आदि का उतना ही मतलब रह जाता है। ‘‘****भगवान आगे उसकी प्राप्ति के लिए कर्म करने की आज्ञा देते हैं।’’
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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