त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।
अर्थ हे अर्जुन! वे तीन गुणों वाले हैं। तू तीनों गुणों से रहित हो जा द्वंद्वों से भी मुक्त हो जा, निरन्तर सत्व में स्थित हो जा। योगक्षेम की चाह से मुक्त हो जा। आत्मा में ही स्थित हो जा। व्याख्यावेदों का ज्ञान तीन गुण प्रकृति के (सत्व, राजस, तामस) इनमें बांधने वाला है।
इन तीनों गुणों से बाहर परम है (मोक्ष)। वेदों को मानने वाले मनुष्य स्वर्ग व संसार में ही चक्कर लगाते रहते हैं। अर्थात् जन्मते मरते रहते हैं। इसलिए भगवान कह रहे हैं अर्जुन को कि जो तू बात कर रहा है कि मेरे कुटुम्ब, पाप, पुण्य, वर्णसंकर यह सब वेदों का ज्ञान है। तू तीनों गुणों से भी रहित (दूर, बाहर) हो जा।
द्वंद्वों से भी मुक्त हो जा। संसार की इच्छा का त्याग करके, जब असंसारी बनता है, व्यक्ति तब ऊंचा उठ जाता है। संसार में ऊंचा उठने के लिए राग द्वेष आदि द्वन्द्वों से रहित होने की बड़ी भारी आवश्यकता है,
यहां भगवान अर्जुन को द्वन्द्वों से बाहर होने की आज्ञा देते हैं। कारण द्वन्द्वों में सम्मोह होता है संसार में बंधन होता है। निरंतर सत्य में स्थिर हो जा (प्रकृति के तीन गुण सत्व, राजस, तमस तीनों गुणों की जानकारी आगे अध्याय नं. 14 से 18 तक विस्तार से बताई गई है)
योग क्षेम से मुक्त होना है (भगवत प्राप्ति को प्राप्त करना योग है और उसकी रक्षा करना क्षेम है) यानि भक्ति में आनन्द मिलता है
यह योग है उसकी भक्ति में बाधा ना हो जाए यानि मेरी भक्ति अच्छी चलती रहे उसकी रक्षा प्रभु करे उस योग क्षेम की चाह से भी मुक्त हो जा, यानि संसार की कोई इच्छा ना रहे इसलिए शरीर संसार को छोड़कर आत्मा में ही स्थिर हो जा, भगवान कहते हैं आगे के श्लोक में कि