नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।
अर्थ मनुष्य लोक में इस समबुद्धि रूप धर्म के आरम्भ का नाश नहीं होता उल्टा फल भी नहीं होता और इसका थोड़ा सा भी अनुष्ठान जन्म-मरण रूप महान् भय से रक्षा कर लेता है। व्याख्याएक होता है कर्म, जो सभी मनुष्य अपनी इच्छा पूर्ति के लिए करते है। यह कर्म मनुष्य को आसक्तियों में डालते हैं और एक होता है कर्मयोग,
इस कर्म में योग साथ में मिल गया योग के साथ कर्म करने वाले, कर्मयोगी को संसार की कोई चीज बंधन में नहीं डाल सकती।
बुद्धि योग का केवल आरम्भ ही हो जाये, तो उस आरम्भ का भी नाश नहीं होता, मन में जो योग प्राप्त करने की लालसा लगी है, यही इस योग का आरम्भ होना है और इस योग का कभी अभाव (कमी) नहीं होता। क्योंकि सत्य वस्तु की लालसा भी सत्य ही होती है।
इस योग रूपी धर्म का मनुष्य पालन अपने जीवन में कर्म करते हुए कर ले तो
‘‘मनुष्य को सबसे बड़ा भय मृत्यु व अगले जन्म का होता है।’’
इस महान भय से यह योग रक्षा कर लेता है अर्थात इस कर्मयोग को करते हुए अपने जीवन को जीए तो मृत्यु के बाद निर्वाण को प्राप्त होता है। यानि जन्म मरण के महान भय से हमेशा के लिए पीछा छूट जाता है।