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अर्जुन उवाच

कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन।।

गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान्।।
अर्थ "अर्जुन बोले - हे मधुसूदन मैं रणभूमि में भीष्म और द्रोण के साथ बाणों से कैसे युद्ध करूँ? क्योंकि हे अरिसूदन! ये दोनों ही पूजा के योग्य हैं। महानुभाव गुरूजनों को न मारकर इस लोक में मैं भिक्षा का अन्न खाना श्रेष्ठ समझता हूँ क्योंकि गुरूजनों को मारकर यहाँ रक्त सने हुए तथा धन की कामना की मुख्यावाले भोगों को ही तो भोगूंगा।" व्याख्यासंसार में दो तरह के सम्बन्ध मुख्य होते हैं। जन्म सम्बन्ध, विद्या सम्बन्ध। जन्म सम्बन्ध में तो पितामह भीष्म हमारे लिए पूजनीय हैं। बचपन में जब मैं उनको पिता जी पिता जी कहता था तब वह बड़े प्यार से गोद में उठाकर कहते थे ‘‘मैं तो तेरे पिता का भी पिता हूँ’’ इस तरह वह बचपन से ही मेरा बहुत लाड़ रखते आये हैं। आचार्य द्रोण मेरे पूजनीय हैं, वे मेरे विद्या गुरू है। वह मुझसे बहुत प्यार करते हैं। उन्होंने अपने पुत्र अश्वत्थामा को भी मेरे समान नहीं पढ़ाया, उन्होंने यह वरदान भी दिया था कि मेरे शिष्यों में तुमसे बढ़कर कोई धनुर्धर नहीं होगा। ऐसे पूजनीय पितामह भीष्म व आचार्य द्रोण के सामने वाणी से ‘तू’ बोलना भी पाप है। फिर उनको बाणों से मारना तो महापाप है। अर्जुन आगे कह रहे हैं कि मैं कायर या नपुंसक नहीं, मैं मरने से नहीं डर रहा हूँ मैं मारने से डर रहा हूँ। अर्जुन कह रहे हैं कि गुरूजनों को नहीं मारूंगा तो मुझको राज्य ही नहीं मिलेगा संसार का भोग ही नहीं मिलेगा चलो कोई बात नहीं, मैं तो भीख मांगकर खा लूंगा। भीख मांगकर खाने से पाप तो नहीं लगेगा। पाप नहीं लगा तो कम से कम राज्य ना सही मुक्ति तो मिल जाएगी। अगर मैं इन गुरूजनों को मार देता हूँ तो भी इस संसार के भोगों को ही तो भोगूंगा उस से अच्छा भीख माँगकर खा लूंगा।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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