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स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाछ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।।

यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्।।

अथ चैत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि।।
अर्थ और अपने स्वधर्म को देखकर भी तुम्हें विचलित नहीं होना चाहिए। क्योंकि धर्ममय युद्ध से बढ़कर क्षत्रिय के लिए दूसरा कोई कल्याण कारक कर्म नहीं है। अपने-आप प्राप्त हुआ युद्ध, खुला हुआ स्वर्ग का दरवाजा भी है। हे पार्थ वे क्षत्रिय बड़े सुखी, भाग्यशाली हैं, जिनको ऐसा युद्ध प्राप्त होता है। अब अगर तू यह धर्ममय युद्ध नहीं करेगा तो अपने धर्म और कीर्ति का त्याग करके पाप को प्राप्त होगा। व्याख्याभगवान कहते हैं कि अर्जुन अपने धर्म को देखकर भी तू विचलित होने योग्य नहीं। अब यहां पर मनुष्य अपने धर्म का मतलब हिन्दु, मुस्लिम, सिख, इसाई समझते है। भगवान इस धर्म की बात नहीं कर रहे, भगवान अर्जुन के स्वधर्म की बात कर रहे हैं। स्वधर्म अर्थात् स्वभाव।इस पृथ्वी पर चार प्रकार के स्वभाव के लोग हैं:-
  1. ब्राह्मण का धर्म है लोगों को ज्ञान देना।
  2. क्षत्रिय का धर्म है सर्वहित की रक्षा के लिए युद्ध करना।
  3. वैश्य का धर्म है रोजगार बढ़ाना।
  4. शूद्र का धर्म है ऊपर कहे सब धर्मों की सेवा करना।
यह धर्म प्रकृति के गुण देखकर ऋषि, मुनियों ने बताये थे इसलिए कृष्ण समझा रहे हैं कि एक क्षत्रिय के लिए धर्म युक्त युद्ध से बड़ा मार्ग मोक्ष के लिए दूसरा कोई नहीं, यही क्षत्रिय का कर्म होता है, यही कर्तव्य होता है।
  • स्वधर्म को बहुत अच्छे से जानने के लिए पढ़े ’’****परम लीला’’ पुस्तक
भगवान आगे कहते हैं, हे पार्थ! अपने आप प्राप्त हुए और स्वर्ग के द्वार पर युद्ध को सुखी क्षत्रिय लोग ही पाते हैं। (जुए में हार जाने पर शर्त के अनुसार पाण्डवों ने बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास भोग लिया उसके बाद जब पाण्डवों ने अपना राज्य मांगा, तब दुर्योधन ने कहा कि मैं बिना युद्ध किए सुई की नोक जितनी भी जमीन नहीं दूंगा) भगवान अर्जुन से कहते है कि यह युद्ध तुमको अपने आप प्राप्त हुआ है। अपने आप प्राप्त हुये धर्म युद्ध में जो शूरवीरता से लड़ते हुए मरता है उसके लिये स्वर्ग का दरवाजा खुला रहता है। अपने आप इस प्रकार का युद्ध अर्थात् इस युद्ध को लड़ने की अर्जुन को बिलकुल इच्छा नहीं थी। फिर भी प्रभु की लीला को आज तक कौन जान पाया है। अपने आप समय के भाव में बहता हुआ यह समय तुम्हारे सामने आ चुका है और यही प्रभु की इच्छा है कि अधर्मी लोगों के पाप का घड़ा भर गया है। इसलिए प्रभु ने यह युद्ध रचा है। इसमें तुम्हारा कोई स्वार्थ नहीं, तुम तो अपने स्वभाव यानि स्वधर्म (क्षत्रिय) का पालन करते हुए, ईश्वर का कार्य समझकर करो, इस प्रकार के युद्ध को सुखी क्षत्रिय लोग ही पाते हैं और फिर भी इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो इस युद्ध को ना करने से तू अपने धर्म से गिर जायेगा यानि तुम क्षत्रिय कहलाने लायक नहीं हो। अपने स्वधर्म से जब व्यक्ति गिर जाता है तो उसकी कीर्ति खो जाती है और पाप को प्राप्त हो जाता है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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