आश्चर्यवत्पश्यतिकश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैवचान्यरू।आश्चर्यवच्चैनमन्यरू शृ्णोति श्रुत्वाप्येनं वेदन चैव कश्चित्।।
अर्थ कोई एक ही इस आत्मा को आश्चर्य की भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई ही इसके तत्त्व का आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अन्य ही इसे आश्चर्य की भाँति सुनता है और कोई-कोई तो इसको सुनकर भी नहीं जानता। व्याख्याआत्मा को तो खुद ही जानना पड़ता है अपने आप से ही जाना जाता है। अपने आप से जो जानना होता है वह जानना सांसारिक ज्ञान की तरह नहीं होता। उसको आँखों से देखना वर्णन करने वाला अनुभव नहीं वह एक भाव है उसको महसूस किया जा सकता है।
जैसे संसार में विवाह करने मात्र से विवाह नहीं होता, बल्कि स्त्री व पुरूष एक दूजे को स्वीकार करते हैं तब विवाह होता है। ऐसे ही सुनने मात्र से परम के दर्शन नहीं होते, सुनने के बाद जब स्वयं उसको स्वीकार करेगा उसमें एकाग्र होकर, तब स्वयं से उसको जानेगा। उसको अपने आप से जानना कहते हैं।
सुनने मात्र से मनुष्य ज्ञान की बातें सीख सकता है। दूसरों को सुना सकता है, लिख सकता है, व्याख्यान दे सकता है, पर अनुभव नहीं कर सकता।
अगर परम प्रभु का वर्णन करने वाला ज्ञानी हो और सुनने वाला श्रद्धालु तथा जिज्ञासु हो तो तत्काल ज्ञान हो सकता है। कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता, ऐसे लोगों में अहंकार होता है यानि जब तक आपके भीतर ‘मैं’ है तब तक प्रभु के अन्दर आने का दरवाजा बन्द है। अहंकार के जाते ही ईश्वर के भीतर आने का मार्ग खुल जाता है।
प्रभु में श्रद्धा किए बगैर ही ज्ञान हो जाता तो भगवान ने बहुत बार अवतार लिया है। अब तक तो कोई अज्ञानी नहीं बचता सब ज्ञानी हो जाते। ऐसे अपने आप ज्ञान कैसे होगा वह तो प्रभु में श्रद्धा विश्वास करने से ही जान सकता है।