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अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।।

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।
अर्थ "हे महाबाहो! अगर तुम इस आत्मा को नित्य पैदा होने वाली अथवा नित्य मरने वाली भी मानों, तो भी तुम्हें इस प्रकार शोक नहीं करना चाहिए। कारण कि पैदा हुए की जरूर मृत्यु होगी और मरे हुए का जरूर जन्म होगा। अतः इस जन्म-मरण रूप परिवर्तन के प्रवाह का निवारण नहीं हो सकता। अतः इस विषय में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए।" व्याख्याभगवान, अर्जुन को कह रहे हैं कि अगर आत्मा को हर बार जन्मने वाला व मरने वाला मानता है तो यह बात भी तुम्हारी मान लेते हैं। फिर भी शोक का विषय नहीं कारण कि जिसका जन्म हो गया वह जरूर मरेगा और जो मर गया है वह जरूर जन्मेंगा क्योंकि इसमें किसी का चिन मात्र भी वश नहीं चलता। ये धृतराष्ट्र के पुत्र जन्में है तो जरूर मरेंगे, तुम्हारे पास कोई उपाय नहीं जिससे इनको बचा सको, जो मर जाएंगे वह जरूर जन्मेंगे। उसको भी तुम रोक नहीं सकते। जैसे सब जानते हैं कि सूर्य का उदय हुआ है तो उसका अस्त होगा ही और अस्त हुआ है तो उदय होगा ही। इसलिए मनुष्य सूर्य के छिप जाने की चिन्ता शोक नहीं करते। ऐसे ही हे अर्जुन! अगर तुम मानते हो कि शरीर के साथ यह भीष्म, द्रोण आदि सब मर जाएंगे तो फिर शरीर के साथ जन्म भी जाएंगे। इस दृष्टि से भी शोक करना नहीं बनता। ये शोक-चिन्ता अपने विवेक को महत्त्व न देने के कारण ही होता है। संसार में परिवर्तन होना आवश्यक है। अगर परिस्थिती नहीं बदलेगी तो संसार कैसे चलेगा। मनुष्य बालक से जवान कैसे होगा, मूर्ख से विद्वान कैसे बनेगा। बीज का वृक्ष कैसे बनेगा। परिवर्तन के बिना संसार एक चित्र की तरह हो जायेगा। विचार करना चाहिए लाखों योनियों में जन्में शरीर अब से पहले आपके नहीं रहे तो फिर यह शरीर कैसे रहेगा। इसलिए इस शरीर का शोक ना कर। भगवान आगे के श्लोकों में और साधारण दृष्टि की बात कहते हैं।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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