य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।
अर्थ जो मनुष्य इस अविनाशी आत्मा को मारने वाला मानता है और जो मनुष्य इसको मरा मानता है, वे दोनों ही इसको नहीं जानते। क्योंकि यह न मारती है और न मारी जाती हैं। व्याख्याआगे श्री कृष्ण कहते हैं अर्जुन को कि यह जो आत्मा है शरीर के भीतर यह शरीर के मारे जाने पर भी नहीं मरता अब कोई व्यक्ति किसी का वैर भाव में वध कर दे और सोचे मैंने इसे मार दिया तो वह उसकी गलतफहमी है या कोई मुझे ना मार दे,
या मैं किसी को मार दूँ अगर ऐसा कोई सोचता है,
वह दोनों ऐसा सोचने वाले व्यक्ति नहीं जानते कि शरीर मरता है आत्मा कभी नहीं मरती। मनुष्य का ‘मन’ ही (इच्छाओं की एक तरंग रूपी गुछी ही मन है) जो शरीर का जन्म करवाती है बाकि आत्मा ना मरती है ना मारती है।
या मैं किसी को मार दूँ अगर ऐसा कोई सोचता है,
वह दोनों ऐसा सोचने वाले व्यक्ति नहीं जानते कि शरीर मरता है आत्मा कभी नहीं मरती। मनुष्य का ‘मन’ ही (इच्छाओं की एक तरंग रूपी गुछी ही मन है) जो शरीर का जन्म करवाती है बाकि आत्मा ना मरती है ना मारती है।