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मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।
अर्थ "हे कुन्तीपुत्र! इन्द्रियों के विषय से प्राप्त सुख और दुःख तो शीत और ऊष्ण की तरह हैं। ये आने-जाने वाले और अनित्य हैं। हे भारत! तुम सहन करो।" व्याख्याहे कुन्ती पुत्र! इन्द्रियों के विषय रूप, रस, गंध, शब्द, स्पर्श ये विषय मिल जाये तो सुख है और न मिले तो दुख है। इन्द्रियों के विषय से मिलने वाले सुख-दुःख तो शीत उष्ण की तरह आने जाने वाले हैं। अर्थात् सुख-दुःख अलग अलग नहीं हैं। जुडे़ हुए हैं। जैसे सर्दी गर्मी जुड़ी है। आप विचार करें गर्मी का पल-पल बीतता समय सर्दी की तरफ जा रहा है। जैसे ही गर्मी कम हो जाती है उसी के साथ जुड़ी सर्दी बढ़ने लग जाती है। फिर सर्दी का बीतता पल-पल गर्मी की तरफ जा रहा है। भगवान कह रहे हैं कि इन्द्रियों के विषयों से मिलने वाला सुख-दुःख तो सर्दी गर्मी की तरह है। दुख का बीतता पल-पल सुख की तरफ जा रहा है। फिर दुख कम होता-होता सुख आ जाता है और फिर पल-पल बीतता सुख-दुःख की तरफ जा रहा है। विषयों से मिलने वाला सुख-दुःख अलग नहीं है। वह तो गर्मी सर्दी की तरह है। आने जाने वाला और अनित्य है। हे भारत तुम इनको सहन करो।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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