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श्री भगवानुवाच

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।।
अर्थ "श्री भगवान बोले - तुमने शोक न करने योग्य का शोक किया है और विद्वत्ता (पण्डितों) की बातें कह रहे हो, परन्तु जिनके प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं, उनके लिए पण्डित लोग शोक नहीं करते।" व्याख्याइस संसार में लोग शोक ना करने योग्य का शोक करते हैं। इस पृथ्वी पर रहने वाले मनुष्य प्रभु को ना जानकर हड्डी, मांस, रक्त से बने शरीर के मरने पर शोक करते हैं, शरीर को ही मानव ‘मैं’ मानते हैं। शरीर के नाश होने पर अज्ञानी व्यक्ति पीछे से बड़ी-बड़ी बातें करते हैं कि बहुत भला व्यक्ति था मर गया।   ज्ञानी व्यक्ति को ही पंडित कहा गया है। ज्ञानी ना तो मरे का शोक करते हैं और ना ही जिन्दा व्यक्तियों में मोह करते हैं। जो वस्तु अपनी ना हो उसको अपना मान लेना और जो वस्तु वास्तव में अपनी हो उसको अपना न मानना बहुत बड़ी भूल है। अपनी वस्तु वही हो सकती है जो सदा हमारे साथ रहे। शरीर एक क्षण भी अपने साथ नहीं रहता हर पल बदलता रहता है और परम प्रभु निरन्तर अपने साथ रहते हैं। इस बात को समझें कि अर्जुन बात तो पंडित जैसी कर रहा है। जैसे कुल का नाश होने से कुल धर्म नष्ट हो जायेगा। धर्म के नष्ट होने से औरतें दूषित हो जायेगी। जिससे वर्ण संकर पैदा होगा। वह वर्ण संकर कुल को नरकों में ले जाने वाला होगा। ऐसी पंडिताई की बातों से भी सिद्ध होता है कि शरीर नाशवान है और आत्मा अविनाशी है। भगवान कह रहे हैं कि तुम्हें कुल व पितरों की चिन्ता होती है। उनका पतन होने का भय होता है। तो इस से सिद्ध होता है कि शरीर नाशवान है और इस शरीर में रहने वाली आत्मा अविनाशी है। शरीर प्रकृति के तत्वों का जोड़ है और इसमें यह जीव ही प्रकृति माया का भोग करता है जीव ही माया में पड़ा भटक रहा है, अगर शरीर आप होते तो हर क्षण बदल क्यूं रहे हो अगर शरीर स्थाई होता तो मिटता कैसे और मिटता है तो स्थाई कैसे, आप शरीर नहीं हो और शरीर हम नहीं तो शोक किसका करें। तू केवल पंडितों के जैसी बातें कर रहा है, वास्तव में तू पंडित है नहीं, क्योंकि जो पंडित होता है, वह मरे और जीवित के लिए शोक नहीं करता।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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