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अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।।
अर्थ अहिंसा, सत्यभाषण, क्रोध न करना, त्याग, शांति, चुगली न करना, प्राणियों पर दया करना, सांसारिक विषयों में न ललचाना, मन में कोमलता, लज्जा, चंचलता का अभाव। व्याख्यागीता अध्याय 16 का श्लोक 2 अहिंसा:    अपने शरीर, मन, वाणी आदि से किसी भी प्राणी को दुख ना पहुँचाना अहिंसा होती है।
सत्य:    अपने स्वार्थ और अहंकार का त्याग करके केवल दूसरों के हित की दृष्टि से जैसा देखा, सुना उससे ना अधिक और ना कम वैसा का वैसा उसी भाव में प्रिय शब्दों में कह देना सत्य है।
अक्रोध:    किसी से दुखी होकर क्रोध नहीं करना चाहिए परन्तु यह भाव पैदा होना चाहिए कि यह तो मुझको मेरी कमियाँ दूर करके निर्मल बनाने में निमित्त बन रहा है। उस पर क्रोध कैसा यह सोचे यह तो मेरा उपकार कर रहा है और मेरे आगे के जीवन के लिए सावधान कर रहा है कि जो गलती पहले कि आगे वैसी गलती ना करूँ। ऐसा सोचकर अपने क्रोध को विलीन करके अक्रोध बने रहे।
त्याग:    संसार भोगों से वैरागय हो जाना ही त्याग है।
शान्ति:    शांति वस्तुओं को प्राप्त करने में नहीं, जो मिला है उसी में सन्तोष करके मन को स्थिर कर लेना ही शांति है।
अपैशुनम्:     किस भी व्यक्ति के दोषों को दूसरों के आगे प्रकट करना चुगली है। किसी की चुगली करना अपने खुद के जीवन में कांटे बिछाना है। मनुष्य किसी का बुरा सोचता है तो प्रकृति गणित के हिसाब से खुद का ही बुरा कर रहा है। चुगली पैशुनता है और चुगली ना करना अपैशुन है।
दया:    सभी प्राणियों पर दया करनी चाहिए, दया से हृदय निर्मल होता है।
    विषयों में (रस, रूप, शब्द, गन्ध, स्पर्श) यह इन्द्रियों के विषय है इन विषयों में ना ललचाना ही अलोलुप्तव है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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