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तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु।।

असुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्।।
अर्थ उन द्वेष करने वाले, क्रूर स्वभाव वाले और संसार में महान नीच, अपवित्र मनुष्यों को मैं बार-बार असुरी योनियों में ही गिराता रहता हूँ। हे कुन्तीनन्दन ! वे मूढ मनुष्य मुझे प्राप्त न करके ही जन्म जन्मान्तर में असुरी योनी को प्राप्त होते हैं। फिर उससे भी अधिक अधम गति में अर्थात् भयंकर नरक में चले जाते है। व्याख्यागीता अध्याय 16 का श्लोक 19-20 भगवान कहते हैं कि असुरी मनुष्य बिना कारण ही अच्छे लोगों से संत महात्माओं से वैर भाव रखते हैं उन द्वेष करने वाले क्रूर स्वभाव वाले महान नीच, अपवित्र मनुष्यों को मैं बार-बार असुरी योनियों में ही गिराता हूँ।
भगवान कहते हैं कि हे कौंतेय (कुन्तीपुत्र) वे मूढ मनुष्य मुझे प्राप्त ना होकर अर्थात् मोक्ष को प्राप्त ना होकर, असुरी मनुष्य हर जन्म में असुरी योनी को ही प्राप्त होते हैं, फिर उनसे भी नीच अधम गति में अर्थात् भयंकर नर्क में चल जाते हैं।
भगवान ने कहा है कि यह जीव मनुष्य शरीर, बुद्धि पाकर भी यानि मेरी प्राप्ति का अवसर पाकर भी, मुझे प्राप्त नहीं करते जिससे मुझे उन असुरियों को अधम योनी में भेजना पड़ता है। अधम गति में भेजने का मूल कारण क्या है इसको श्री कृष्ण भगवान आगे के श्लोक में बताते हैं।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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