अभयं सत्त्वसंशुद्धिः ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।।
अर्थ श्री भगवान बोले: अभय, सत्व, सम, शुद्धि, ज्ञान के लिए योग में स्थिति और दान, इन्द्रियों का दमन, यज्ञ, स्वाध्याय, कर्त्तव्य पालन के लिए कष्ट सहना और शरीर, मन, वाणी की सरलता। व्याख्यागीता अध्याय 16 का श्लोक 1
अभय: परमात्मा की तरफ चलने वाला योगी परमात्मा पर जितना अधिक विश्वास करता है और उनके आश्रित होता है, उतना ही ज्यादा वह योगी अभय होता चला जाता है। उसको यह विचार रहता है कि मैं तो परम का अंश आत्मा हूँ और आत्मा कभी नष्ट नहीं होती तो फिर भय किस बात का, योगी को पता होता है कि शरीर मैं नहीं हूँ शरीर प्रकृति का अंश है। यह प्रकृति प्रतिक्षण अभाव में जा रही है तो फिर भय किस बात का। ऐसा विवेक स्पष्ट रूप से प्रकट होने पर भय नष्ट हो जाता है और योगी अभय हो जाता है।
सत्वसमशुद्धि: मन की शुद्धि-झूठ, कपट, छल को छोड़कर अपनी सम्पूर्ण इच्छाओं को विलीन करके समसाधक बनकर परमात्मा के बताए मार्ग पर चलना और नये पाप ना हो जाए इन बातों को हमेशा दृष्टा बनकर देखते रहना, अपने भीतर हर क्षण ईश्वर को महसूस करते रहना ही अन्तःकरण की शुद्धि होती है। सात्विक गुण में सम होकर अपने भीतर विचारों की शुद्धि रखना ही सत्वसमबुद्धि होता है।
ज्ञानयोग में दृढ स्थिति:मानव, पशु, पक्षी, जीवजन्तु, पेड़, पौधे, नदियाँ, सागर आदि कण-कण में तत्वज्ञान से सब जगह परमात्मा को देखना है वह ज्ञान योग है। संसार की किसी भी माया से विचलित ना होना दृढ़ स्थिति है।
दान: संसार वस्तुओं के साथ सम्बन्ध न जोड़कर योगी ऐसा माने, कि अपने पास वस्तु, धन, सामर्थ्य, योग्यता आदि जो कुछ भी है, वह सब ईश्वर ने दूसरों की सेवा करने के लिए मुझे निमित्त बनाकर दी है, जरूरत मंद को जो कुछ दिया जाए, वह सब उसी का समझ कर उसे दे देना ‘दान’ है।
दम: मन इन्द्रियों को पूर्ण रूप से वश में कर लेना दम है।
यज्ञ: जो-जो मनुष्य ने वस्तुएँ, धन आदि अपनी मान रखी है, उन सबको परमात्मा की समझ कर लोगों को दे देना आहुति यज्ञ है। स्वाध्याय: अपने आप से अपने आप को जानना, कि ‘मैं कौन हूँ’ यह मेरी बुद्धि में विचार कहाँ से आ रहे हैं। मुझको संसार से इतना मोह क्यों है, मुझको क्रोध क्यों आता है, मैं मेरे जीवन में क्या कर रहा हूँ, मुझको क्या करना चाहिए, यह सब विचार बार-बार चिंतन, मनन करना, खुद का अध्ययन करना ही स्वाध्याय है। तप: अपने कर्त्तव्य पालन के लिए कष्ट सहन करना ही तप है। शरीर, मन, वाणी की सरलता हर क्षण परमात्मा में स्थिर रहने से आती है।
यज्ञ: जो-जो मनुष्य ने वस्तुएँ, धन आदि अपनी मान रखी है, उन सबको परमात्मा की समझ कर लोगों को दे देना आहुति यज्ञ है। स्वाध्याय: अपने आप से अपने आप को जानना, कि ‘मैं कौन हूँ’ यह मेरी बुद्धि में विचार कहाँ से आ रहे हैं। मुझको संसार से इतना मोह क्यों है, मुझको क्रोध क्यों आता है, मैं मेरे जीवन में क्या कर रहा हूँ, मुझको क्या करना चाहिए, यह सब विचार बार-बार चिंतन, मनन करना, खुद का अध्ययन करना ही स्वाध्याय है। तप: अपने कर्त्तव्य पालन के लिए कष्ट सहन करना ही तप है। शरीर, मन, वाणी की सरलता हर क्षण परमात्मा में स्थिर रहने से आती है।