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अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः।।
अर्थ वे अहंकार, हठ, घमण्ड, कामना और क्रोध का आश्रय लेने वाले मनुष्य अपने और दूसरों के शरीर में रहने वाले मुझ अन्तर्यामी के साथ द्वेष करते हैं तथा मेरे और दूसरों के गुणों में दोष दृष्टि रखते हैं। व्याख्यागीता अध्याय 16 का श्लोक 18 जैसे साधक भगवान के आश्रित रहते हैं ऐेसे ही असुरी मनुष्य हठ, घमण्ड, कामना, क्रोध के आश्रित रहते हैं।
भगवान कहते है कि अपने और दूसरों के शरीर में रहने वाली मेरी आत्मा के साथ द्वेष यह असुरी लोग करते हैं अर्थात् मेरे और दूसरों के गुणों में दोष निकालते हैं। उनको लगता है सब अच्छाई हमारे में ही है, उनको संसार में कोई अच्छा इन्सान दिखता ही नहीं। आज तक जितने संत महात्मा हुए हैं और आज भी जो संत महात्मा है या कोई साधक है। उनके लिए भी असुरी लोग कहते है कि उनमें भी भक्ति का दिखावा है और कुछ नहीं, वे कहते हैं कि हमने बचपन से बहुत भक्ति करके देख ली कुछ नहीं भक्ति में यह ऐसी बात बोल कर साधकों की आत्मा दुखाते है वह भगवान से ही द्वेष करते हैं।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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