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श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते।।
अर्थ यह मन का आश्रय लेकर ही श्रोत्र और नेत्र तथा त्वचा, रसना और घ्राण इन पाँचों इन्द्रियों द्वारा विषयों का सेवन करता है। व्याख्यागीता अध्याय 15 का श्लोक 9 - Geeta 15.9 यह जीवात्मा मन को अधीन करके इंद्रियों के द्वारा विषयों का सेवन करता है। जीवात्मा मन के बिना विषयों का भोग नहीं कर सकता। जीवात्मा से मन में तरंग उठेगी विषयों के भाव की, फिर मन में जैसे ही बार बार भोग की तरंग रूप भाव (विचार) चलते रहते हैं। जीवात्मा की जैसी तरंग होगी मन उसी तरंग की पूर्ति के लिए उसकी इन्द्री को सक्रिय करता है, जैसे पाँच प्रकृति के विषयों का भोग पांच इंद्रियों से करता है मन।
पांच इंद्रियां: आंख, जीव्हा, नाक, कान, त्वचा 
पांच विषय: रूप, रस, गंध, शब्द, स्पर्श 
भगवान ने इसी अध्याय के श्लोक 7 में कहा कि यह जीव बना हुआ आत्मा मेरा ही अंश है, यह जीव परमात्मा का अंश है, भूल से संसार माया की चकाचौंध में बंध गया है, यह कुछ पाना चाहता है, उस पाने के लिए अपनी तृप्ति करने के लिए जीव भटक रहा है जैसे स्वप्न में पानी पीने से शरीर की प्यास नहीं बुझती और पेट के ऊपर रोटी बांधने से पेट की भूख शांत नहीं होती, इस प्रकार जीव को प्यास तो है परमात्मा की, पर वह उस प्यास को बुझाना चाहता है, प्रकृति के विषयों के भोग से, यह जीव की कितनी बड़ी भूल है, अगर एक ही मनुष्य को भोग के लिए संपूर्ण वस्तुएं दे दी जाए तो भी वह मनुष्य उन भोगों से तृप्त नहीं हो सकता। कारण की जीव अविनाशी परम का अंश है और भोग नाशवान प्रकृति का अंश है, नाशवान अविनाशी को कैसे तृप्त कर सकता है, प्यास लगने पर खीर हलवा खाओगे तो प्यास कैसे शांत होगी, प्यास शांत पानी पीने से होगी। जीव आज कुछ पाना चाहता है, तृप्त होना चाहता है, वह सुख, आनंद परमात्मा के सिवा और कहीं नहीं, वह सत चित आनंद तो आपको अपने घर परमधाम में मिलेंगे।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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