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शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्।।
अर्थ वायु गन्ध के स्थान से गन्ध को ग्रहण करके ले जाती है, ऐसे ही शरीर आदि का स्वामी बना हुआ। जीवात्मा भी जिस शरीर को छोड़ती है, वहाँ से इन मन सहित भावों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होती है। उसमें चली जाती है। व्याख्यागीता अध्याय 15 का श्लोक 8 - Geeta 15.8 वायु गंध के स्थान से गंध को ग्रहण करके ले जाती है, जैसे फूलों के स्थान से वायु गुजरती है तो फूलों की महक को अपने साथ दूर तक ले जाती है। गंध हो चाहे दुर्गंध हवा वहां से उसको अपने साथ बहा ले जाती है जैसे कीचड़ वहीं पड़ा रहता है फूल वहीं पड़े रहते हैं, हवा उनकी सुगंध या दुर्गंध को बहा ले जाती है। ऐसे ही शरीर वहीं पड़ा रह जाता है जो शरीर का स्वामी है जीवात्मा, वह उस शरीर के मन में सम्पूर्ण इच्छाओं को ग्रहण करके जिस नये शरीर को प्राप्त करता है उसमें चला जाता है।
मनुष्य का शरीर मरता है, जीव कभी नहीं मरता, जीव के मन में जितनी अच्छाइयाँ बुराइयाँ होती है जीव उनको अपने साथ लेकर नए शरीर में चला जाता है जैसे आप किसी घर में रहते हो जब वह घर पुराना हो जाता है तब आप उस पुराने घर को छोड़कर नए घर में चले जाते हो जैसे घर बदलने से घर ही बदलता है आप नहीं बदलते। ऐसे ही जीव जब शरीर पुराना हो जाता है तब नए शरीर को धारण कर लेता है, तब शरीर ही बदलता है जीव नहीं। 
आप जिस कमरे में बैठे हो वह कमरा अलग है, और आप अलग हो, मान लेते हैं यह कमरा शरीर है, आप जीवात्मा हो, जैसे ही आप कमरे से बाहर गए तो क्या आप में कुछ बदला है, नहीं जो इच्छाएँ आपकी कमरे में थी, वह इच्छाएंँ कमरे के बाहर जाने पर भी हैं और वही इच्छा आप दूसरे कमरे में गए तो भी आपकी वही इच्छा सेम रहती हैं। 
ऐसे ही जीव का शरीर बदलता रहता है, जीव के मन की आसक्ति नहीं बदलती, अगर जीव के मन की इच्छाएँ ही विलीन हो जाए, तो जीव आत्मा ही है और आत्मा ही परम है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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