ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।
अर्थ इस संसार में जीव मेरा ही सनातन अंश है। परन्तु वह प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है।
व्याख्यागीता अध्याय 15 का श्लोक 7 - Geeta 15.7
भगवान यहाँ यह कहते हैं कि जीव बना हुआ आत्मा मेरा ही सनातन अंश है अर्थात् आत्मा परम का ही अंश है, परंतु प्रकृति के कार्य शरीर इंद्रियों आदि के साथ अपनी मैं मानकर वह जीव हो गया है, उसका यह जीवपना बनावटी है वास्तविक नहीं, जैसे शेर का बच्चा भेड़ों में मिलकर अपने को भेड़ मान ले तो वह शेर का बच्चा भेड़ों में मिलकर भेड़ नहीं हो जाता। जिसे दूसरा शेर आकर उसको बोध करा दे कि देख तेरी मेरी शरीर की आकृति स्वभाव गर्जना आदि सब एक समान है, तू भेड़ नहीं है मेरे जैसा ही सिंह है, ऐसे ही भगवान यहाँ जीव को बोध करवाते हैं कि हे जीव तू मेरा ही अंश है, तू शरीर इंद्रियां नहीं प्रकृति के साथ तेरा संबंध हुआ ही नहीं कभी, ना ही कभी होगा।
जीव प्रकृति में इंद्रियाँ शरीर को अपना मान लेती है यह जीव का अज्ञान है, हम सब प्राणी शरीर नहीं परम का अंश आत्मा है। जीव जितना ही संसार भोग को महत्व देता है, उतना ही वह पतन की तरफ जाता है और जितना ही परमात्मा को महत्व देता है, उतना ही ऊँचा उठता है। कारण कि जीव परमात्मा का ही अंश है।
जीव प्रकृति में इंद्रियाँ शरीर को अपना मान लेती है यह जीव का अज्ञान है, हम सब प्राणी शरीर नहीं परम का अंश आत्मा है। जीव जितना ही संसार भोग को महत्व देता है, उतना ही वह पतन की तरफ जाता है और जितना ही परमात्मा को महत्व देता है, उतना ही ऊँचा उठता है। कारण कि जीव परमात्मा का ही अंश है।