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निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।।
अर्थ जो मान और मोह से रहित हो गये हैं। जिन्होंने आसक्ति से होने वाले दोषों को जीत लिया है। जो नित्य निरंतर परमात्मा में ही लगे हुए हैं। जो सम्पूर्ण कामनाओं से रहित हो गये हैं। जो सुख-दुःख नाम वाले द्वन्द्वों से मुक्त हो गये हैं ऐसे मोह रहित साधक भक्त उस अविनाशी परमपद को प्राप्त होते हैं। व्याख्यागीता अध्याय 15 का श्लोक 5 - Geeta 15.5 भगवान कहते हैं अर्जुन को कि जिन ज्ञानियों के मान और मोह नष्ट हो गये हैं। जिन्होंने आसक्ति रूप दोषों को जीत लिया है अर्थात्् परमात्मा के शरण होने पर उनका शरीर से मोह नहीं रहता, फिर मान आदर की इच्छा उनमें हो ही कैसे सकती है।
जिनकी परमात्मा के स्वरूप में नित्य स्थिति है और जिन की कामनाएँ पूर्ण रूप से नष्ट हो गई है और वह ज्ञानी सुखदुख नाम वाले द्वन्द्वों से मुक्त हो गया है।
वे योगी सुख दुख, हर्ष, शोक, राग, द्वेष आदि द्वन्द्वों से परे हो जाते हैं, कारण कि उनके सामने अनुकूल प्रतिकूल जो भी परिस्थिति आती हैं उनको वह परमात्मा का दिया हुआ प्रसाद मानते हैं उनकी दृष्टि परम प्रभु पर ही रहती है। सुख-दुख पर नहीं रहती, ज्ञानी ऐसा विचार करते हैं कि यह सुख दुख तो मेरे प्यारे परम प्रभु की लीला है ऐसे भाव होने से द्वंद्व अपने आप विलीन हो जाते हैं। ऐसे ऊंची स्थिति वाले योगी, उस अविनाशी परम को प्राप्त होते हैं।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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