ततः पदं तत्परिमार्गितव्य यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।।
अर्थ उसके बाद उस परम पद की खोज करनी चाहिए। जिसको प्राप्त हुए मनुष्य फिर लौटकर संसार में नहीं आते और जिससे आदिकाल से चली आने वाली यह सृष्टि विस्तार को प्राप्त हुई है, उस अविनाशी पुरूष परमात्मा के ही मैं शरण हूँ।
व्याख्यागीता अध्याय 15 का श्लोक 4 - Geeta 15.4
भगवान ने पिछले श्लोक में त्याग वैराग्य करने की बात कही इससे यह सिद्ध होता है कि परमात्मा की खोज करने से पहले संसार से संबंध विच्छेद करना बहुत आवश्यक है।
शरीर संसार के भोगों से मेरा कोई संबंध नहीं है इस ज्ञान का आचरण करना ही संसार वृक्ष का छेदन करना है और मैं परम का अंश हूँ। इस ज्ञान के ध्यान में नित्य निरंतर स्थित रहना ही परमात्मा की खोज करना है (यहाँ खोज करने का यह मतलब नहीं कि आप उसको कहीं ढूँढते फिरो) जब आप शांत स्थिर होकर अपने भीतर ध्यान के अभ्यास से ढूंढोगे तो परम का अंश आत्मा आपके भीतर ही मिल जाएगा।
जैसे जल की बूँद सागर में मिल जाने के बाद वह बूँद दोबारा सागर से अलग नहीं हो सकती ऐसे ही परमात्मा का अंश जीवात्मा परमात्मा को प्राप्त होने के बाद परमात्मा से अलग नहीं हो सकता। फिर वह जीव संसार में लौट कर नहीं आते और जिस परम से यह सृष्टि आदि काल चली आ रही है, वह अविनाशी परम वह शरण मैं हूँ।
शरीर संसार के भोगों से मेरा कोई संबंध नहीं है इस ज्ञान का आचरण करना ही संसार वृक्ष का छेदन करना है और मैं परम का अंश हूँ। इस ज्ञान के ध्यान में नित्य निरंतर स्थित रहना ही परमात्मा की खोज करना है (यहाँ खोज करने का यह मतलब नहीं कि आप उसको कहीं ढूँढते फिरो) जब आप शांत स्थिर होकर अपने भीतर ध्यान के अभ्यास से ढूंढोगे तो परम का अंश आत्मा आपके भीतर ही मिल जाएगा।
जैसे जल की बूँद सागर में मिल जाने के बाद वह बूँद दोबारा सागर से अलग नहीं हो सकती ऐसे ही परमात्मा का अंश जीवात्मा परमात्मा को प्राप्त होने के बाद परमात्मा से अलग नहीं हो सकता। फिर वह जीव संसार में लौट कर नहीं आते और जिस परम से यह सृष्टि आदि काल चली आ रही है, वह अविनाशी परम वह शरण मैं हूँ।