नरूपमस्येहतथोपलभ्यते नान्तोनचादिर्नच संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनंसुविरूढमूलमसङ्गशस्त्रेणदृढेन छित्त्वा।।
अश्वत्थमेनंसुविरूढमूलमसङ्गशस्त्रेणदृढेन छित्त्वा।।
अर्थ इस संसार वृक्ष का जैसा रूप देखने में आता है। वैसा यहाँ विचार करने पर मिलता नहीं क्योंकि इसका न तो आदि है, न अंत है और न स्थिति ही है। इसलिए इस दृढ़ मूलों वाले संसार रूप अश्वस्थ वृक्ष को दृढ़ असगंता रूप शस्त्र के द्वारा काटकर।
व्याख्यागीता अध्याय 15 का श्लोक 3 - Geeta 15.3
इस संसार का जैसा स्वरूप वेदों में वर्णन किया गया है और जैसा रूप हमारे देखने में आता है। वैसा रूप तत्वज्ञान होने के बाद नहीं पाया जाता, जिस प्रकार आँख खुलने पर नींद में स्वप्न का बना संसार नहीं पाया जाता, स्वप्न में आदमी, औरत, नगरी, गाड़ी, धंधे आदि सब सच्चे दिखते हैं लेकिन होते नहीं। लेकिन स्वप्न में सब सच्चे दिखते हैं, आँख खुलते ही गाड़ी, नगरी, स्त्री आदि एक पल में गायब हो जाते हैं, जैसे वह नहीं होते हुए भी सब सत्य जैसा दिख रहा था, आँखें खुलते ही गायब हो गए। ऐसे ही यह संसार तेरा-मेरा सब स्वपन है, जैसे ही आपको तत्वज्ञान होगा वैसे ही यह संसार में तेरा-मेरा सब गायब हो जाएगा, फिर संपूर्ण संसार परमात्मा ही नजर आएगा, संसार नजर नहीं आएगा।
संसार से संबंध मानकर भोगों की तरफ इच्छा रखते हुए इस संसार का आदि-अंत कभी जानने में नहीं आ सकता, संसार का साक्षी होने पर ही संसार का रूप अच्छे से जाना जा सकता है।
सांसारिक स्त्री, पुत्र, धन, मान, बड़ाई, संपत्ति आदि कितने ही प्राप्त हो जाएं, यहाँ तक कि संसार के संपूर्ण भोग एक ही मनुष्य को मिल जाए तो भी उनसे मनुष्य को तृप्ति नहीं हो सकती। क्योंकि जीव खुद अविनाशी है और संसार में सभी चीज नाशवान है, नाशवान से अविनाशी कैसे तृप्त हो सकता है।
समप्रतिष्ठा ना स्थिति है यह संसार मन के कारण ही दिखता है, जिस वस्तु में राग होता है, उसी वस्तु की सत्ता दिखती है। अगर राग का त्याग कर दिया जाए तो यह संसार क्षणिक और नाशवान नजर आएगा। यह संपूर्ण संसार हर क्षण बदल रहा है कोई भी व्यक्ति सारे जीवन में इस संसार को एक बार भी नहीं देख सकता, देखने मात्र में भी बदल जाता है, इसलिए इसकी स्थिति भी नहीं है।
त्याग इस दृढ मूल वाले संसार वृक्ष को दृढ़ वैराग्य रूप शस्त्र के द्वारा काटकर धन, घर, जमीन आदि पदार्थों का त्याग कर देने पर भी मन में उनका महत्व बना हुआ है और ‘मैं त्यागी हूँ’ ऐसा अभिमान है, तो वास्तव में वह वैराग्य नहीं वह मनुष्य का अहंकार है। वैराग्य अपने भीतर से होता है दिखावे से नहीं, अपने भीतर ऐसे भाव रखें जैसे मुझे परमात्मा के मार्ग पर चलना है। संसार से कुछ भी लेने की इच्छा न रखकर संसार की सेवा में लगे रहना, शरीर संसार से मैं और मेरेपन के भाव का त्याग कर देना। संसार के सुख भोग की कामना का त्याग कर देना, ऐसे दृढ वैराग्य शस्त्र के द्वारा इस संसार रूपी वृक्ष को काट कर उसके बाद। ‘‘आगे के श्लोक में देखें’’
संसार से संबंध मानकर भोगों की तरफ इच्छा रखते हुए इस संसार का आदि-अंत कभी जानने में नहीं आ सकता, संसार का साक्षी होने पर ही संसार का रूप अच्छे से जाना जा सकता है।
सांसारिक स्त्री, पुत्र, धन, मान, बड़ाई, संपत्ति आदि कितने ही प्राप्त हो जाएं, यहाँ तक कि संसार के संपूर्ण भोग एक ही मनुष्य को मिल जाए तो भी उनसे मनुष्य को तृप्ति नहीं हो सकती। क्योंकि जीव खुद अविनाशी है और संसार में सभी चीज नाशवान है, नाशवान से अविनाशी कैसे तृप्त हो सकता है।
समप्रतिष्ठा ना स्थिति है यह संसार मन के कारण ही दिखता है, जिस वस्तु में राग होता है, उसी वस्तु की सत्ता दिखती है। अगर राग का त्याग कर दिया जाए तो यह संसार क्षणिक और नाशवान नजर आएगा। यह संपूर्ण संसार हर क्षण बदल रहा है कोई भी व्यक्ति सारे जीवन में इस संसार को एक बार भी नहीं देख सकता, देखने मात्र में भी बदल जाता है, इसलिए इसकी स्थिति भी नहीं है।
त्याग इस दृढ मूल वाले संसार वृक्ष को दृढ़ वैराग्य रूप शस्त्र के द्वारा काटकर धन, घर, जमीन आदि पदार्थों का त्याग कर देने पर भी मन में उनका महत्व बना हुआ है और ‘मैं त्यागी हूँ’ ऐसा अभिमान है, तो वास्तव में वह वैराग्य नहीं वह मनुष्य का अहंकार है। वैराग्य अपने भीतर से होता है दिखावे से नहीं, अपने भीतर ऐसे भाव रखें जैसे मुझे परमात्मा के मार्ग पर चलना है। संसार से कुछ भी लेने की इच्छा न रखकर संसार की सेवा में लगे रहना, शरीर संसार से मैं और मेरेपन के भाव का त्याग कर देना। संसार के सुख भोग की कामना का त्याग कर देना, ऐसे दृढ वैराग्य शस्त्र के द्वारा इस संसार रूपी वृक्ष को काट कर उसके बाद। ‘‘आगे के श्लोक में देखें’’