द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।।
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः।।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।।
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः।।
अर्थ इस संसार में क्षर और अक्षर ये दो प्रकार के ही पुरूष हैं। सम्पूर्ण प्राणियों के शरीर क्षर और जीव अक्षर कहा जाता है। उत्तम पुरूष तो अन्य ही है, जो परमात्मा इस नाम से कहा गया है, वही अविनाशी ईश्वर तीनों लोकों में प्रविष्ट होकर सबका भरण-पोषण करता है। व्याख्यागीता अध्याय 15 का श्लोक 16-17
क्षर: आकाश, पृथ्वी, वायु, अग्नि और जल इन पाँच महाभूतों से बने हुए शरीर आदि जितने पदार्थ हैं। वह संपूर्ण क्षर नाम से कहे गए हैं अर्थात् शरीर क्षर है।
अक्षर: संतो ने इस अक्षर को जीवात्मा, सूक्ष्म शरीर, आदि नामों से कहा है यह शरीर के मारे जाने पर भी नहीं मारा जाता, यह अपने कर्मों के अनुसार उनका फल भोगने के लिए अलग-अलग योनियों में भटकता रहता है।
उत्तम पुरुष: -भगवान कहते हैं इन दोनों क्षर-अक्षर से उत्तम पुरुष तो अन्य ही हैं, जो परमात्मा इस नाम से कहा गया है। वह उत्तम पुरुष (पुरुषोत्तम) अर्थात् निर्गुण निराकार परमात्मा सर्वत्र यानि संपूर्ण ब्रह्म को अपने में रचके सब जगह व्याप्त है।
परमात्मा ही संपूर्ण प्राणियों का भरण पोषण करते हैं। कैसे भरण-पोषण करते हैं, वह इस अध्याय के श्लोक 13,14 में देखें।
· शरीर, मन, आत्मा अर्थात् शरीर प्रकृति के तत्वों से बना है, यह शरीर खत्म होने के बाद प्रकृति के तत्व में विलीन हो जाता है।
· मन को ही साधारण भाषा में जीवात्मा कहते हैं शरीर के मारे जाने पर यह जीव दूसरे शरीर में चला जाता है। जब से यह ब्रह्म रचा तब से यह जीव अपने कर्मों के हिसाब से ऊंच नीच योनियों में जाकर अपने नए नए शरीर को धारण करता है।
· आत्मा ही सर्वत्र व्याप्त है इस आत्मा को जब शरीर में देखते हैं तो यह आत्मा है और सर्वत्र व्याप्त देखते हो तो यह परमात्मा है। यह शरीर और जीव से उत्तम पुरुष कोई और ही है यानि लोग अपने शरीर-जीव को ही संसार समझते हैं। लेकिन इन दोनों से परमात्मा उत्तम पुरुष कहने का भाव है कि एक परमात्मा से ही संपूर्ण संसार व्याप्त है और एक परमात्मा से ही सबका भरण पोषण होता है।