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अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्।।
अर्थ प्राणियों के शरीर में रहने वाला मैं प्राण-अपान से युक्त जठर अग्नि होकर चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ। व्याख्यागीता अध्याय 15 का श्लोक 14 प्राण-अपान दोनों वायु, जठर अग्नि को प्रदीप्त करती हैं जठर अग्नि से पचे हुए भोजन या रस को शरीर में प्रत्येक अंग में पहुँचने का सूक्ष्म कार्य भी प्राण और अपान वायु का ही है। पृथ्वी में प्रविष्ट होकर संपूर्ण प्राणियों को धारण करना, चंद्रमा होकर संपूर्ण औषधियों का पोषण करना, फिर उन अन्न को खाने वाले प्राणियों के भीतर जठर अग्नि होकर खाए हुए अन्न को पचाना, पूरे शरीर में प्राण अपान वायु से अन्न के रस को प्रत्येक अंग में पहुँचाना यह संपूर्ण कार्य परमात्मा की शक्ति से होते हैं। परंतु सब कार्य ईश्वर करता है, मनुष्य तो यूँ ही अपने को कर्त्ता मान कर अहंकार से बंधता है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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