यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः।।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः।।
अर्थ यत्न करने वाले योगी लोग अपनी आत्मा में स्थित परमात्मा तत्त्व का अनुभव करते हैं। परन्तु जिन्होंने अपना मन शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अविवेकी मनुष्य यत्न करने पर भी इस तत्त्व का अनुभव नहीं करते।
व्याख्यागीता अध्याय 15 का श्लोक 11
भीतर की लगन जिसे पूर्ण किए बिना सुकून से ना रहा जाए, वह यत्न कहलाती है समबुद्धि योग से स्थित योगी बार-बार योग का अभ्यास करते हुए, अपने आप में स्थित आत्म रूप परमात्मा तत्व का अनुभव कर लेते हैं।
परमात्मा सब जगह सर्वव्यापी होने से, योगी को ज्ञान होता है, कि प्रभु यहाँ भी है सब जगह कण-कण में भी सब समय में भी है, सब प्राणियों में भी आत्मरूप में स्थित है और मुझ में भी है। जब यह पता लग जाए कि मुझमें यानि मेरे भीतर भी है, तो योगी यत्न करके उनको अपने भीतर ही ढूंढते हैं। अज्ञानी मूढ मनुष्य उनको बाहर ढूंढते फिरते हैं ज्ञानी अपने भीतर आत्म रूप परम प्रभु का ध्यान, अभ्यास, चिंतन आदि यत्न करके अपने प्रभु को खोज लेते हैं।
परंतु जिन्होंने अपने मन को शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अज्ञानी मनुष्य यत्न करने पर भी इस परम तत्व का अनुभव नहीं कर सकते। आप समझें इस बात को योगी और अविवेकी दोनों ही यत्न करते हैं। यत्न करने पर योगी को आत्मबोध हो जाता है पर अविवेकी को यत्न करने पर भी बोध नहीं होता, इसका कारण यह है कि योगी अपनी संपूर्ण आसक्तियां त्यागकर यत्न करते हैं, अपना संपूर्ण जीवन प्रभु के चरणों में अर्पित करके संसार के भोगों का भीतर से त्याग करके फिर ईश्वर की खोज करते हैं, योगी को पता ही है संपूर्ण दृश्य संसार क्षण क्षण अदृश्य में जा रहा है अपना शरीर भी बालक, जवानी, बुढ़ापे में क्षण-क्षण जा रहा है। जब अपना शरीर ही अनित्य है, तो संसार की किस वस्तु को नित्य समझा जाए, इसलिए योगी अपने भीतर संसार पदार्थों का त्याग करके ईश्वर की खोज करते हैं, जहाँ जाने पर इस मृत्युलोक में दोबारा लौट कर नहीं आना पड़ता।
जिन्होंने अपना अंतःकरण (मन) शुद्ध नहीं किया अर्थात् जिनके मन में संसार के व्यक्ति वस्तु आदि का महत्व बना हुआ है। जो शरीर आदि को अपना मानते हैं उनसे सुख भोग की आशा रखते हैं, ऐसे सभी मनुष्य परम की प्राप्ति तो चाहते हैं। परंतु मन में संसार भोग की कामना का त्याग नहीं कर पाते, तब उन मूढ़ मनुष्यों के यत्न करने पर भी परमात्मा तत्व का अनुभव नहीं होता।
‘‘आसक्तियाँ ही संसार का बंधन है
और इनका त्याग ही ईश्वर प्राप्ति है’’
मन की मैली परत को, आसक्तियों का त्याग करके साफ करने से, परम सर्वत्र व्याप्त नजर आ जाते हैं।
परमात्मा सब जगह सर्वव्यापी होने से, योगी को ज्ञान होता है, कि प्रभु यहाँ भी है सब जगह कण-कण में भी सब समय में भी है, सब प्राणियों में भी आत्मरूप में स्थित है और मुझ में भी है। जब यह पता लग जाए कि मुझमें यानि मेरे भीतर भी है, तो योगी यत्न करके उनको अपने भीतर ही ढूंढते हैं। अज्ञानी मूढ मनुष्य उनको बाहर ढूंढते फिरते हैं ज्ञानी अपने भीतर आत्म रूप परम प्रभु का ध्यान, अभ्यास, चिंतन आदि यत्न करके अपने प्रभु को खोज लेते हैं।
परंतु जिन्होंने अपने मन को शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अज्ञानी मनुष्य यत्न करने पर भी इस परम तत्व का अनुभव नहीं कर सकते। आप समझें इस बात को योगी और अविवेकी दोनों ही यत्न करते हैं। यत्न करने पर योगी को आत्मबोध हो जाता है पर अविवेकी को यत्न करने पर भी बोध नहीं होता, इसका कारण यह है कि योगी अपनी संपूर्ण आसक्तियां त्यागकर यत्न करते हैं, अपना संपूर्ण जीवन प्रभु के चरणों में अर्पित करके संसार के भोगों का भीतर से त्याग करके फिर ईश्वर की खोज करते हैं, योगी को पता ही है संपूर्ण दृश्य संसार क्षण क्षण अदृश्य में जा रहा है अपना शरीर भी बालक, जवानी, बुढ़ापे में क्षण-क्षण जा रहा है। जब अपना शरीर ही अनित्य है, तो संसार की किस वस्तु को नित्य समझा जाए, इसलिए योगी अपने भीतर संसार पदार्थों का त्याग करके ईश्वर की खोज करते हैं, जहाँ जाने पर इस मृत्युलोक में दोबारा लौट कर नहीं आना पड़ता।
जिन्होंने अपना अंतःकरण (मन) शुद्ध नहीं किया अर्थात् जिनके मन में संसार के व्यक्ति वस्तु आदि का महत्व बना हुआ है। जो शरीर आदि को अपना मानते हैं उनसे सुख भोग की आशा रखते हैं, ऐसे सभी मनुष्य परम की प्राप्ति तो चाहते हैं। परंतु मन में संसार भोग की कामना का त्याग नहीं कर पाते, तब उन मूढ़ मनुष्यों के यत्न करने पर भी परमात्मा तत्व का अनुभव नहीं होता।
‘‘आसक्तियाँ ही संसार का बंधन है
और इनका त्याग ही ईश्वर प्राप्ति है’’
मन की मैली परत को, आसक्तियों का त्याग करके साफ करने से, परम सर्वत्र व्याप्त नजर आ जाते हैं।