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उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः।।
अर्थ शरीर को छोड़कर जाते हुए या दूसरे शरीर में स्थित हुए अथवा विषयों को भोगते हुए भी गुणों से युक्त जीवात्मा के स्वरूप को मूढ़ मनुष्य नहीं जानते, ज्ञानरूपी नेत्रों वाले ज्ञानी मनुष्य ही जानते हैं। व्याख्यागीता अध्याय 15 का श्लोक 10 प्रकृति के गुणों से युक्त जीवात्मा को जैसे शरीर को छोड़कर जाते हुए, जाकर दूसरे शरीर में स्थित हुए या प्रकृति के विषयों को भोगते हुए। जीवात्मा को कोई भी मूढ मनुष्य नहीं जानते, ज्ञान रूपी नेत्रों के द्वारा देखने वाले ज्ञानी ही जानते हैं, शरीर को छोड़कर जाना, दूसरे शरीर में स्थित होना और विषयों को भोगना। तीनों क्रियाएँ अलग-अलग हैं परन्तु उसमें रहने वाला जीव एक ही है। यह बात सामने होते हुए भी अज्ञानी मनुष्य इस बात को नहीं जानता। तीनों गुणों से मोहित हुआ रहने के कारण बेहोश रहता है, परंतु इन अवस्थाओं में जीवात्मा एक ही रहता है, इन बातों को ज्ञानरूपी नेत्रों वाले योगी मनुष्य ही देखते हैं।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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