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श्री भगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।।
अर्थ श्री भगवान बोले: ऊपर की ओर मूल वाले तथा नीचे की ओर शाखा वाले जिस संसार रूप अश्वस्थ वृक्ष को प्रवाह रूप से अव्यय कहते हैं और वेद जिसके पत्ते हैं, उस संसार वृक्ष को जो जानता है, वह सम्पूर्ण वेदों को जानने वाला है। व्याख्यागीता अध्याय 15 का श्लोक 1 ऊपर की ओर मूल वाले: अर्थात् संसार रूपी वृक्ष ऊपर की ओर जड़ वाला है। वृक्ष में (जड़) ही प्रधान होती है, ऐसे ही इस संसार रूपी वृक्ष में परमात्मा ही प्रधान है यानि एक परमात्मा ही सबसे श्रेष्ठ है। उनसे ऊपर या उनके बराबर भी दूसरा कोई नहीं सर्वशक्तिमान निर्गुण निराकार परमात्मा ही इस संसार रूप वृक्ष का कारण है। इसलिए इस संसार वृक्ष को ऊर्ध्वमूल वाला कहते हैं। नीचे की ओर शाखा वाले: अर्थात् वृक्ष के मूल से ही तना, शाखाएँ, कोंपलें निकलती हैं। इस प्रकार एक परमेश्वर से ही संपूर्ण ब्रह्म उत्पन्न होता है। उस आदि पुरुष परम ईश्वर से उत्पत्ति होने के कारण ब्रह्म को ही अधःशाखा वाला कहा गया है, यानि ब्रह्म ही इस संसार का विस्तार करने वाला होने से मुख्य शाखा (तना) है इसलिए ब्रह्म रूप संसार वृक्ष को अधःशाखा वाला कहते हैं। इस संसार वृक्ष की ऊपर जड़ और नीचे तना व शाखा वाला कहा गया है। इस वृक्ष का मूल कारण परम अविनाशी है तथा अनादि काल से इसकी परम्परा चली आती है। इसलिए इस संसार वृक्ष को ‘अव्ययम्’ (अविनाशी) कहते हैं। वेद जिसके पत्ते हैं: पत्ते वृक्ष की शाखाओं से उत्पन्न होने वाले तथा वृक्ष की रक्षा और वृद्धि करने वाले होते हैं। पत्तों से वृक्ष सुंदर दिखता है तथा मजबूत होता है। (पत्तों के हिलने से वृक्ष का तना व शाखाएं मजबूत होती हैं) यहाँ भगवान ने वेद ‘ज्ञान’ को कहा है। ज्ञान प्रकृति के गुण के स्वभाव से उत्पन्न होता है, गुण ब्रह्म में उत्पन्न होते हैं, ब्रह्म एक परम ईश्वर से उत्पन्न होता है। इसलिए वेद (ज्ञान को) परमात्मा से उत्पन्न हुए जानो, इसलिए वेद को पत्तों का स्थान दिया है जैसा ज्ञान होगा वैसा ही जीवन और जूणी होगी। इस संसार वृक्ष को जो जानता है वह मनुष्य सम्पूर्ण वेदों के यथार्थ तात्पर्य को जानने वाला है। वेदों का अध्ययन करने से मनुष्य वेदों का विद्वान तो हुआ जा सकता है परंतु यथार्थ वेद वेता नहीं हो सकता, वेदों का अध्ययन करने पर जिनको आत्मसाक्षात्कार हो गया है। परमात्मा का बोध हो गया है, वहीं वास्तव में वेदवेता है। जीव, ब्रह्म, परब्रह्म तीनों परमात्मा ही हैं इसी का यहाँ वृक्ष रूप से वर्णन किया गया है। एक परमात्मा की योग माया से उत्पन्न हुआ संपूर्ण संसार क्षणभंगुर, नाशवान है। इसकी आसक्ति को त्याग कर केवल परमात्मा का ही निरंतर, अनन्य प्रेम से ध्यान, चिंतन करना वेद (ज्ञान) के तात्पर्य को जानना है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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