रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् ।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ।।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ।।
अर्थ हे कौन्तेय ! तृष्णा और आसक्ति को पैदा करने वाले रजोगुण को तुम रागस्वरूप समझो। वह कर्मों और उनके फल की आसक्ति से जीवात्मा को बाँधता है।
व्याख्यागीता अध्याय 14 का श्लोक 7
श्री भगवान बताते हैं कि रजोगुण को कामना तथा आसक्ति से उत्पन्न हुआ जान, रजोगुण भाव के सबसे ज्यादा मनुष्य पृथ्वी पर है। जैसे सत्वगुण में जीव सुख व ज्ञान से बंधता है, ठीक वैसे ही रजोगुण में जीव कामना व आसक्तियों से बंधता है, इस गुण के व्यक्ति में इच्छाएँ बहुत होती हैं, वासना प्रबल होती है। इस गुण का व्यक्ति कोई भी कर्म करे उसमें ‘‘मैं’’ यानि अहंकार प्रबल होता है। ऐसा व्यक्ति केवल फलकांक्षा हेतु कार्य करता है, पंरतु यदि आशा अनुरूप फल ना मिले तो उसे दुख, दर्द, पीड़ा होती है और यदि आशानुरूप फल मिल जाए तो अहंकार बढ़ जाता है। रजो गुणी इच्छाओं के कारण जन्मता मरता रहता है।