मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत।।
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता।।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत।।
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता।।
अर्थ हे भारत ! मेरी प्रकृति तो उत्पत्ति स्थान है और मैं उसमें जीव रूप गर्भ का स्थापन करता हूँ। उससे सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है। हे कौन्तेय ! सम्पूर्ण योनियों में जितने शरीर पैदा होते हैं, उन सबकी मूल प्रकृति तो माता है और मैं बीज स्थापन करने वाला पिता हूँ।
व्याख्यागीता अध्याय 14 का श्लोक 3-4
हे भारत मेरी प्रकृति तो सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति स्थान है, मैं उस उत्पत्ति स्थान (गर्भ) में जीवरूप गर्भ का स्थापन करता हूँ, उस प्रकृति और जीव के संयोग से सब प्राणियों की उत्पत्ति होती है।
हे कौन्तेय सम्पूर्ण योनियों में जितने शरीर पैदा होते हैं। जैसे मानव, पशु, पक्षी, कीट, पतंगे, आदि उन सबकी प्रकृति तो माता है (गर्भ का स्थान है) मैं बीज (जीव) को स्थापन करने वाला पिता हूँ।
परम और प्रकृति के संयोग से उत्पन्न होने वाले जीव प्रकृति के गुणों से कैसे बंधते है।
ब्रह्म से परमब्रह्म श्रेष्ठ होते हुए भी जीव प्रकृति से सम्बन्ध बना लेता है और परम से विमुख हो जाता है। जीव प्रकृति के तीनों गुणों से सम्बन्ध जोड़ लेता है और उससे भी नीचे गिरकर गुणों के कार्य शरीर से सम्बन्ध जोड़कर बन्ध जाता है।
हे कौन्तेय सम्पूर्ण योनियों में जितने शरीर पैदा होते हैं। जैसे मानव, पशु, पक्षी, कीट, पतंगे, आदि उन सबकी प्रकृति तो माता है (गर्भ का स्थान है) मैं बीज (जीव) को स्थापन करने वाला पिता हूँ।
परम और प्रकृति के संयोग से उत्पन्न होने वाले जीव प्रकृति के गुणों से कैसे बंधते है।
ब्रह्म से परमब्रह्म श्रेष्ठ होते हुए भी जीव प्रकृति से सम्बन्ध बना लेता है और परम से विमुख हो जाता है। जीव प्रकृति के तीनों गुणों से सम्बन्ध जोड़ लेता है और उससे भी नीचे गिरकर गुणों के कार्य शरीर से सम्बन्ध जोड़कर बन्ध जाता है।