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मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ।।

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाऽहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च।।
अर्थ और जो मनुष्य अव्यभिचारी भक्ति योग के द्वारा मेरा सेवन करता है, वह इन गुणों का अतिक्रमण करके ब्रह्म प्राप्ति का पात्र हो जाता है। क्योंकि ब्रह्म का और अविनाशी अमृत का तथा शाश्वत धर्म का और एकान्तिक सुख का आश्रय मैं ही हूँ। व्याख्यागीता अध्याय 14 का श्लोक 26-27 अव्यभिचारी भक्ति योग: जो अनन्यभाव से केवल परम के ही शरण हो जाता है। केवल एक परमेश्वर को ही अपना स्वामी मानता है अपने स्वार्थ और अहंकार को त्याग कर, अपनी श्रद्धा से प्रेम से निरंतर परमात्मा का चिन्तन करता है, वह अव्यभिचारी भक्ति योग होता हैं
अव्यभिचारी भक्तियोग से योगी तीनों गुणों को लांघकर ब्रह्म प्राप्ति का पात्र हो जाता है।
अर्जुन ने पुछा था कि इन तीनों गुणों से अतीत मनुष्य के क्या लक्षण होते हैं और इन तीनों गुणों से पार उस परम ब्रह्म को कैसे प्राप्त किया जाता है। तब भगवान ने उसका उत्तर देते हुए श्लोक 22 से 26 तक उसका ज्ञान दिया। कुछ साधक यहाँ भ्रमित हो जाते हैं। ब्रह्म तो प्रकृति है तो क्या दोबारा प्रकृति को प्राप्त होता है। मनुष्य इस बात को अच्छे से समझें कि भगवान अर्जुन को प्रकृृति के तीनों गुणों को लाँघकर परमात्मा प्राप्ति का ज्ञान दे रहे हैं, इसलिए यहाँ भगवान ने मुक्ति को ही यहाँ ब्रह्म कहा है।
क्योंकि ब्रह्म का, अविनाशी अमृत तथा शाश्वत धर्म का और एकांत सुख का आश्रय मैं हूँ अर्थात् अविनाशी अमृत, धर्म का आधार मैं हूँ, मेरा आधार यह है यानि अविनाशी अमृत और मैं दो नहीं है एक ही है और वह मैं ही हूँ।
इस ज्ञान का आचरण करके अनन्यभाव से निर्गुण निराकार की भक्ति करता हुआ साधक परम गति (मोक्ष) को प्राप्त हो जाता है।
    परम रहस्य:- पृथ्वी से लेकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कोई भी ऐसा ग्रह नहीं है, जहाँ प्रकृति के तीन गुण सतो, रजो, तमो अपना प्रभाव ना डालते हो। यानि सम्पूर्ण सृष्टि इन तीनों गुणों के प्रभाव में ही कार्य करती है। परमप्रभु द्वारा प्रकृति को प्रदान किये गये ये तीन मानक हैं, पैमाने हैं, जो भी जिस गुण के प्रभाव में आयेगा, उसी अनुसार कर्म करेगा। उन्हीं कर्म अनुसार फल मिलेंगे, सब ऑटोमोड पर कार्य करता है ।
जीव परमप्रभु को भूलकर संसार की कामना करता है, कामना धन संपति की, परिवार की, पद प्रतिष्ठा की जैसे ही होती है, ’मैं’ और ’मेरापन’ चरम पर पहुँच जाता है, और जीव शरीर से बंध जाता है। कोई भी कार्य जब सम्पन्न होता है, उसमें सफलता मिलती है तो कर्त्तापन का अभिमान आ जाता है, व्यक्ति अहंकारी हो जाता है। धन संपदा के वशीभूत हो जाता है, आजाद होते हुए भी परतंत्र हो जाता है। जिस वस्तु को अपना मानता है, उस वस्तु के घटने-बढ़ने से उस पर असर पड़ता है, प्रसन्न होगा या दुःखी होगा। जिन व्यक्तियों को अपना मानता है, उनके जन्म-मरण से प्रभावित होता है। शरीर को अपना मानता है उसके घटने-बढ़ने से स्वयं प्रभावित होता है। परमप्रभु को छोड़कर व्यक्ति सृष्टि की तमाम वस्तुओं से अगर मोह रखता है, आसक्ति करता है, तो उस पर प्रकृति के गुणों की मार पड़ती ही है।
अगर ये गुण जीव को बांधने वाले होते तो कोई भी जीव छूट नहीं सकता था अपितु जीव खुद गुणों को अपने साथ बांधता है। जीव संसार में जैसी इच्छाएँ करेगा, जैसी आसक्ति पालेगा, प्रकृति के गुण उस व्यक्ति या भाव व स्वभाव वैसा ही बना देते हैं। उन इच्छाओं को पूरा करने के लिए व्यक्ति पूरे जीवन दौड़ता है, और जो इच्छा पूर्ण हुई है उनसे और अधिक इच्छाओं की श्रंखला निकल जाती है। ऐसे ही पूरे जीवन दौड़ने के बाद, जब मृत्यु वरण करती है, तो बहुत सी इच्छाएँ अधूरी रह जाती हैं।
जैसे धन-दौलत, परिवार, शरीर से मोह व बहुत से लोगों से ईर्ष्या, द्वेष, जलन, घृणा बदला लेने की भावना इत्यादि। इन सब कर्मों के पाप-पुण्य के टोटल जोड़ से जीव को दोबारा जन्म लेना पड़ता है, फिर यही चक्र बार-बार चलता रहता है, यही त्रिगुणी माया में बंधना कहा गया है।
तीनों गुणों से पार निकल कर यानि प्रकृति की त्रिगुणी माया से बच निकलना ही मुक्ति है। भवसागर, भावों के सागर को पार करना है, यह माया बड़ी विचित्र है, भगवत स्वरूप मार्ग पर चलने वाले को भी मोह लेती है। ऐसे असंख्य उदाहरण आपने हमारे पुराणों में पढ़े हैं। जब यह मोहमाया ज्ञानियों को ही नहीं छोड़ती तो इसमें अज्ञानियों की तो बिसात ही क्या है।
विचित्र माया का खेल संसार में उलझाये रखता है, व्यक्ति बोलता है कि बुढ़ापे में भक्ति कर लेंगे, इस माया प्रकृति का गणित कोई नहीं समझ सकता, इसका फॉर्मूला केवल उसी के पास है, तो बुढ़ापा आयेगा या नहीं निश्चित नहीं है। एक पल में ही चलते-चलते प्राण चले जाते हैं। अब भविष्य किसने देखा, अभी दो पल बाद या दो घंटे बाद में कब प्राण निकलने हैं, कोई नहीं जानता तो फिर भक्ति के लिए बुढ़ापे का इंतजार क्यों? चौबीस घंटे प्रभु स्मरण क्यों नहीं? क्या पता कब प्राण निकल जायें और पिछली बार बुढ़ापे में कर लेते, तो यह जन्म ही क्यों होता, और यदि इस जन्म में बुढ़ापे में करेंगे तो क्या पता बुढ़ापे में यादाश्त रहेगी या नहीं रहेगी, स्वस्थ रहेंगे या बीमारी में तड़प रहे होंगे। इसलिए यदि मायाजाल से छुटकारा पाना है, तो एक पल भी इंतजार ना करें, अभी से ही निरंतर भक्ति करें।
‘‘ जय श्री कृष्णा ’’
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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