समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः।।
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते।।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः।।
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते।।
अर्थ जो धीर मनुष्य दुःख सुख में सम तथा अपने स्वरूप में स्थित रहता है, जो मिट्टी के ढेले, पत्थर और सोने में सम रहता है। जो प्रिय-अप्रिय में सम रहता है, जो अपनी निन्दा-स्तुति में सम रहता है, जो मान-अपमान में सम रहता है, जो मित्र-शत्रु के पक्ष में सम रहता है और जो सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ का त्यागी है, वह मनुष्य गुण अतीत कहा जाता है।
व्याख्यागीता अध्याय 14 का श्लोक 24-25
सुख दुख अलग-अलग नहीं है, यह दोनों साथ जुड़े हुए हैं, गर्मी सर्दी की तरह, जैसे गर्मी का बीतता हर पल सर्दी की तरफ जा रहा है। पल-पल बितते सर्दी आ जाती है फिर पल पल बीतते हुए गर्मी शुरू हो जाती है। गर्मी सर्दी अलग-अलग नहीं है जुड़ी हुई है। सुख दुख भी गर्मी सर्दी की तरह आने जाने वाला है। दुख का बीतता हर पल सुख की तरफ जा रहा है। सुख का बीतता पल पल दुख की तरफ जा रहा है। जो धीर पुरूष है वह सुख दुख आने पर भी अपने आत्म स्वरूप में सम (स्थिर) रहता है। उसके लिए मिट्टी, पत्थर, सोना एक समान है अर्थात् पत्थर और सोने में तो फर्क वह व्यक्ति देखता है जिसको संसार के भोग की आसक्तियाँ होती है। जिसको संसार के किसी व्यक्ति, वस्तु में मोह नहीं रहता, परमात्मा के साथ एकीभाव रहने वाले योगी के लिए पत्थर, मिट्टी, सोना एक समान ही हैं।
जो अपनी निन्दा स्तुति में सम है, मान अपमान में सम है और मित्र शत्रु के पक्ष में सम है वह सब कर्मों के आरम्भ का त्यागी गुणातीत यानि तीनों गुणों का त्याग करके परम में स्थित मनुष्य कहा जाता है।
जो अपनी निन्दा स्तुति में सम है, मान अपमान में सम है और मित्र शत्रु के पक्ष में सम है वह सब कर्मों के आरम्भ का त्यागी गुणातीत यानि तीनों गुणों का त्याग करके परम में स्थित मनुष्य कहा जाता है।