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उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते।।
अर्थ जो उदासीन की तरह स्थित है और जो गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता तथा गुण ही गुणों में बरत रहे हैं। इस भाव से जो स्थित रहता है और स्वयं कोई भी चेष्टा नहीं करता। व्याख्यागीता अध्याय 14 का श्लोक 23 उदासीन की तरह: अर्थात् दो व्यक्तियों में से किसी एक का पक्ष लेने वाला ‘पक्षपाती’ कहलाता है। दोनों को बराबर समझने वाला ‘मध्यस्थ’ कहलाता है, दोनों का भी पक्ष ना लेने वाला उदासीन कहलाता है।
गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, गुणों में ही सम्पूर्ण क्रियाएँ हो रही हैं, ऐसा समझकर योगी अपने आत्म स्वरूप में स्थित रहता है और अपनी तरफ से कोई भी चेष्टा नहीं करता।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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