श्री भगवानुवाच
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति।।
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति।।
अर्थ हे पाण्डव ! प्रकाश और प्रवृति तथा मोह, ये सभी अच्छी तरह से प्रवृत हो जाए तो भी इनसे द्वेष नहीं करता और ये सभी निवृत हो जाए तो इनकी इच्छा नहीं करता।
व्याख्यागीता अध्याय 14 का श्लोक 22
सत्वगुण में निर्मलता रहती है उसी का नाम प्रकाश है।
रजोगुण में लोभ प्रवृति रहती है और तमोगुण में मोह प्रवृति रहती है। भगवान ने इसी अध्याय के श्लोक दस में कहा है कि यह गुण घटते-बढ़ते रहते हैं, इन तीनों गुणों से होने वाली अच्छी-बुरी वृतियों से साधक को राग-द्वेष नहीं करना चाहिए। अच्छे-बुरे भाव से अपना सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहिए।
वृतियाँ एक समान किसी की नहीं रहती, तीनों गुणों की वृतियाँ तो गुणातीत योगी के चित में भी होती रहती हैं। परन्तु योगी उन वृतियों से राग द्वेष नहीं करता, वृतियाँ अपने आप आती है। योगी की दृष्टि उधर जाती ही नहीं। क्योंकि योगी की दृष्टि में एक परम प्रभु के सिवाय और कुछ रहता ही नहीं।
रजोगुण में लोभ प्रवृति रहती है और तमोगुण में मोह प्रवृति रहती है। भगवान ने इसी अध्याय के श्लोक दस में कहा है कि यह गुण घटते-बढ़ते रहते हैं, इन तीनों गुणों से होने वाली अच्छी-बुरी वृतियों से साधक को राग-द्वेष नहीं करना चाहिए। अच्छे-बुरे भाव से अपना सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहिए।
वृतियाँ एक समान किसी की नहीं रहती, तीनों गुणों की वृतियाँ तो गुणातीत योगी के चित में भी होती रहती हैं। परन्तु योगी उन वृतियों से राग द्वेष नहीं करता, वृतियाँ अपने आप आती है। योगी की दृष्टि उधर जाती ही नहीं। क्योंकि योगी की दृष्टि में एक परम प्रभु के सिवाय और कुछ रहता ही नहीं।